संजीव कुमार शर्मा, स्वास्थ्य और पोषण के विशेषज्ञ : हम सभी बचपन से सुनते आए हैं कि हड्डियों को मजबूत रखने के लिए विटामिन डी (Vitamin D Benefits) जरूरी है। लेकिन विटामिन डी की कहानी सिर्फ इतनी नहीं है। यह तो उसके काम का एक हिस्सा भर है, जितने शोध होते जा रहे हैं विटामिन डी के उतने ही उपयोग सामने आते जा रहे हैं- कुल मिलाकर ‘हरी अनंत, हरी कथा अनंता’ वाला मामला है।
विटामिन नहीं बल्कि हार्मोन है यह
विटामिन डी की खोज 1913 में एल्मर मैककॉलम और उनके साथी वैज्ञानिकों द्वारा की गयी। रिकेट्स नामक रोग (जिसमें बच्चों की हड्डियाँ टेढ़ी हो जाती हैं) का इलाज खोजते हुए वैज्ञानिकों को विटामिन डी के बारे में पता चला था। 1930 में इसे पहली बार प्रयोगशाला में बनाया गया। उसके बाद से दुनिया भर के स्वास्थ्य शोध संस्थानों में विटामिन डी पर शोध चल रहा है और उसके शरीर पर चमत्कारिक प्रभावों के बारे में पता चलता जा रहा है। अब यह भी माना जाने लगा है कि तकनीकी रूप से विटामिन डी, विटामिन नहीं बल्कि हॉर्मोन है, लेकिन उसके उपयोगों की सूची बढ़ती ही जा रही है।
दो रूपों में मौजूद
विटामिन डी एक वसा या फ़ैट में घुलने वाला विटामिन है और यह शरीर में जमा हो जाता है। आमतौर पर यह दो रूपों में पाया जाता है डी2 (एर्गोकेल्सेफेरोल) जो कुछ पौधों, यीस्ट या मशरूम से प्राप्त होता है और डी3 (कोलेकेल्सेफेरोल) जो जंतुओं से प्राप्त होता है। भोजन द्वारा विटामिन डी सीमित मात्रा में ही प्राप्त होता है इसलिए शरीर इसे हमारी त्वचा द्वारा धूप के संपर्क आने पर बनाता है।
कोरोना के दौर में विशेष पहचान
हाल ही में जब पूरी दुनिया में करोना महामारी का प्रकोप फैला तो विटामिन डी की तरफ चिकित्सा विशेषज्ञों का ध्यान गया और करोना के उपचार के जो भी प्रोटोकॉल बनाए गए उनमें विटामिन डी को विशेष स्थान दिया गया। चिकित्सक और वैज्ञानिक इस बात पर सहमत थे कि शरीर के अंदर विटामिन डी का सही स्तर करोना से बचाव के लिए काफी महत्वपूर्ण है और करोना हो जाने पर उसके ठीक होने में भी विटामिन डी काफी मदद करता है। यह पहला अवसर था जब आम लोगों को पता लगा कि विटामिन डी इम्यूनिटी को बनाए रखने के लिए कितना जरूरी है।
अनगिनत हैं उपयोग
विटामिन डी के हमारे शरीर में अनगिनत उपयोग हैं और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संभवतः अभी हमको उसके पूरे उपयोग पता भी न हों, फिर भी इतना तो निश्चित है कि विटामिन डी के प्रमुख कार्यों में शामिल है :-
- विटामिन डी केल्शियम और फ़ॉस्फोरस के अवशोषण को बढ़ाता है।
- विटामिन डी केल्शियम और फ़ॉस्फोरस को हड्डियों में जमा होने में मदद करके उनको स्वस्थ और मजबूत रखता है।
- शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र या इम्यूनिटी के लिए जरूरी है।
- अवसाद को कम करने और मूड को ठीक रखने में भी इसकी भूमिका है।
- इसमें एंटी-इंफ़्लमेटरी गुण हैं।
- हृदय और रक्त-नलिकाओं के तंत्र ‘कार्डियो-वेस्क्यूलर सिस्टम’ को ठीक रखने में मदद करता है।
- थाइरॉइड, किडनी आदि के स्वस्थ रहने के लिए भी जरूरी है।
बेहद आम है इसकी कमी
यह इतना उपयोगी विटामिन है लेकिन इसकी कमी बेहद आम है। विटामिन डी की रोज की आवश्यकता (रेकमेंडेड डाइटरी एलाउंस) एक वयस्क व्यक्ति के लिए 600 इंटर्नेशनल यूनिट या 15 माइक्रोग्राम है जो 70 साल की उम्र के बाद बढ़ कर 800 इंटर्नेशनल यूनिट या 20 माइक्रोग्राम तक हो जाती है। इसकी कमी होने पर कई बार शुरुआत में हमें पता ही नहीं चलता है।
बार-बार बीमार होना, शरीर में दर्द बने रहना, जोड़ों में अकड़न या बेचैनी महसूस होना, कमजोरी का अनुभव होना या मूड ठीक न रहना आदि कुछ ऐसे लक्षण हैं जो विटामिन डी की कमी की ओर इशारा करते हैं। रक्त परीक्षण से इसका सटीक रूप से पता चलता है। इसकी रक्त में मात्रा 30 से 50 नैनोग्राम प्रति लीटर के बीच होनी चाहिए।
धूप से पूरी होगी जरूरत
एक अनुमान के अनुसार लगभग 70% से 80% लोगों में विटामिन डी की कमी पायी जाती है। इसका कारण यह है कि शरीर इसके निर्माण के लिए धूप पर निर्भर है। जब त्वचा पर धूप पड़ती है तो हमारी विशेष कोशिकाएं विटामिन डी का निर्माण कर लेती हैं। आजकल हम लोग अधिकांश समय घर, ऑफ़िस और स्कूल-कॉलेज की इमारतों के अंदर बिताते हैं। यदि कभी बाहर निकलते भी हैं तो हमारी त्वचा को धूप के संपर्क में आने का मौका नहीं मिलता। नतीजा यह होता है कि विटामिन डी की कमी बनी रहती है और कई बार हमें तब पता चलता है जब शरीर का काफी नुकसान हो चुका होता है।
यदि हमारे शरीर की पूरी त्वचा को पर्याप्त धूप मिले तो लगभग 15-20 मिनट में ही दिन भर की जरूरत से ज़्यादा विटामिन डी बन जाता है। यदि हम थोड़े-बहुत वस्त्र पहने रहें तब भी लगभग आधा घंटे में हमारी विटामिन डी की जरूरत पूरी हो जाती है। घर में प्राकृतिक प्रकाश की व्यवस्था होना और खुले में रहना भी उपयोगी सिद्ध होता है।
डी 3 की खुराक (Vitamin D3)
यदि एक बार विटामिन डी का स्तर एक सीमा से ज्यादा कम हो जाए तो उसे ठीक करने के लिए सप्लीमेंट लेने की जरूरत पड़ सकती है। आम तौर पर डी3 या कोलेकेल्सेफेरोल की खुराक दी जाती है जो सप्ताह में एक बार या दो बार 60,000 इंटर्नेशनल यूनिट तक होती है और आवश्यकता के अनुसार दो से छह महीने के लिए दी जाती है। चिकित्सक या सप्लिमेंट सलाहकार कमी के स्तर के अनुसार तय करते हैं कि कितनी और कितने समय तक खुराक देनी है।
इससे भी तेज असर वाले कुछ विटामिन डी सप्लिमेंट हैं जैसे केल्सिफ़िडियोल, अल्फ़ाकेल्सिडॉल या केल्सिट्रोल आदि जो विटामिन डी की ऐक्टिव फ़ॉर्म हैं लेकिन अभी वह हमारे देश में आम तौर पर इस्तेमाल नहीं होते। कुछ खास रोगियों जिनके गुर्दे में समस्या हो या किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हों उनको दिए जाते हैं क्योंकि गुर्दे ही विटामिन डी को उस रूप में बदलते हैं जिसे शरीर उपयोग कर सकता।
ओवरडोज का संकट
धूप से प्राकृतिक रूप से कितना भी विटामिन डी बन जाए उसकी टॉक्सिसिटी होना असंभव है लेकिन जब हम इसे सप्लिमेंट के रूप में लेते हैं तो ओवर डोज़ होने पर इसकी टॉक्सिसिटी हो सकती है। इसकी टॉक्सिसिटी होने पर शरीर में केल्शियम की मात्रा बढ़ने लगती है और शरीर में अनेक तरह की समस्या होने लगती है। यदि तुरंत इलाज नहीं कराया जाए तो शरीर के अंगों को नुकसान पहुँचने लगता है और जान को भी खतरा हो सकता है। इसलिए विटामिन डी के सप्लिमेंट का सेवन हमेशा विशेषज्ञ की सलाह से करना चाहिए।
हमारी सेहत से विटामिन डी का इतना गहरा संबंध है कि हमेशा हमें अपने शरीर विटामिन डी के स्तर पर नजर रखनी चाहिए और जरूरत पड़ने पर सप्लिमेंट लेने चाहिए। किसी भी तरह का संदेह होने पर रक्त परीक्षण द्वारा इसका पता लगाया जा सकता है। लेकिन सबसे जरूरी है कि हम रोज कुछ समय धूप में बिताएँ, खुले में रहें और अधिक से अधिक समय प्राकृतिक प्रकाश में रहें। इससे हमारे शरीर में विटामिन डी का स्तर तो ठीक रहेगा ही साथ ही अन्य कई रोगों से भी बचाव होगा।