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Opposition Unity Politics: विपक्षी एकता की जड़ में है भय, लोभ, असुरक्षा !

Opposition Unity Politics : लोकसभा चुनाव 2024 से पहले सत्ता पक्ष और विपक्ष एक दूसरे को शह और मात की रणनीति बनाने में जुटी है और इसी का प्रतिफल है विपक्षी एकता। 

Opposition Unity Politics

Opposition Unity Politics: राजनीति के अपने दस्तूर है। सबसे पहला दस्तूर और मकसद है कि हर राजनेता सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना चाहता है। राजनीति का ध्येय ही है सत्ता पर कब्जा करना और जब एक बार सत्ता हाथ में आ जाए, तो किसी भी कीमत पर भी उसे कस कर थामे रहना। भले ही इसके लिए लाख हथकंडे क्यों न अपनाने पड़ें। जितने ऊटपटांग कारनामें सत्ताधारियों को करने पड़ते हैं, उससे कई गुना अधिक मगजमारी करनी पड़ती है उनको जो बरसों से विपक्ष की सीटों पर बैठे, सत्ता के फल को जोहते, इंतजार करते रहते हैं।

Opposition Parties

यदि कोई सरकार लंबे समय तक सत्ता में जमी रहे तो विपक्षियों की बेचैनी और अधैर्य कई गुना बढ़ जाते हैं। ऐसे संकट में विचार आता है विपक्षी एकता (Opposition Unity Politics) का। भले ही एक दूसरे को देखना भी पसंद न करते हों, विचारों में दूर-दूर तक कोई मेल न हो, तब भी शत्रु सभी का एक हो, तो विपक्षी यह भ्रम पाल लेते हैं कि एक हो कर लड़ें तो शत्रु को मात दे ही देंगे। एक होने की यह शपथ किसी नशेड़ी की शपथ के समान होती है जो हर रोज़ एक बार नशा छोड़ने की कसम खाता है। यह उस बच्चे के हठ जैसी भी होती है जो किसी चीज़ को पाने के लोभ में अपनी शरारत छोड़ने का वादा करता है। पर जैसे ही उसे वह चीज़ हासिल होती है, वह फिर से अपनी पुरानी हरकतों पर वापस लौट आता है।

इस देश में विपक्षी एकता (INDIA) कुछ इसी तरह की है। जैसे दो लोगों के बीच कोई प्रेम न हो, कोई वैचारिक समानता न हो, पर आर्थिक सुरक्षा और कुछ मामूली सुविधाओं के लिए वे आपस में विवाह कर लेते हैं। बाद में जो जूतम पैजार होगी, उसे मैनेज कर लेंगे, यही सोच कर। विपक्षी एकता का अपना ख़ास किस्म का गणित होता है; साथ ही अपना मनोविज्ञान और अपनी ही विचित्र किस्म की रुग्णता भी। हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि विपक्षी एकता का विचार फर्जी, खोखली और बार-बार विफल होने वाली धारणा क्यों है। यह अक्सर सत्ताधारियों की ही मदद क्यों कर देता है। देश में विपक्ष आज उसी पुराने असफल विचार को क्यों दोहरा रहा है, जबकि 2024 में आम चुनाव (Mission 2024) में सिर्फ एक साल बचा है।

जब कुछ लोग एक समूह के रूप में संगठित होना चाहते हैं तो उनकी मनोदशा कैसी होती है? गौर से देखें तो समूह बनाने की जड़  में असुरक्षा का भाव, विफलता का भय और सफल होने की अदम्य महत्वाकांक्षा होती है। यह बात सत्ता पक्ष और विरोधियों दोनों पर समान रूप से लागू होती है। इसी में समूह की मजबूती और कमजोरी दोनों होती हैं। क्योंकि एक बार तात्कालिक सफलता पाने के बाद उसमे शामिल लोगों की व्यक्तिगत कामनाएं प्रबल होने लगती हैं। यही आगे चल कर आपसी कलह और अंततः विभाजन और विखंडन का कारण बन जाती हैं। क्योंकि सत्ता को बांटना कोई नहीं चाहता। सत्ता की दुनिया में साथी-संगी नहीं होते। सत्ता का सिहांसन आकार में छोटा होता है और उसपर हर व्यक्ति अकेला ही बैठना चाहता है। सिर्फ मजबूरी में और किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण ही कोई सत्ता के व्यंजन मिल बांट कर खाता है।

पिछले करीब एक दशक से सत्ता से बाहर रहने के बाद विपक्ष को गहरी बेचैनी और अदम्य कामनाओं की पीड़ा सता रही होगी। दूसरी तरफ सत्तासीन गठबंधन में सत्ता की आदत भी बड़ी गहरी हो चुकी होगी। ऐसे में दोनों के बीच एक जोरदार संघर्ष होने की संभावना बनाती दिखाई दे रही है। विपक्ष का सोचना है कि उन्हें सत्ता वापस (Mission 2024) लेने का अधिकार है। किसी दल में भी अलग से नरेंद्र मोदी को हराने की ताकत नहीं है इसलिए उन्हें मिल जुल कर कुछ करना है।

विपक्ष (INDIA) जो करना चाह रहा है वह एक प्रशंसनीय भावना के तहत ही है। लोकतंत्र की बुनियाद ही इस पर टिकी है। पर यह सकारात्मक होना चाहिए। यह वही नहीं होना चाहिए जो पहले भी कई बार किया जा चुका है और उसके निराशाजनक परिणाम सामने आये हैं। इस क्लांत और फफूंद लगे विचार में सबसे बड़ी त्रुटि यह भरोसा है कि आप एक शक्तिशाली नेता और उनकी पार्टी को जोड़-तोड़ और तिकड़म से हरा सकते हैं। अपनी अच्छाई से ज्यादा उसकी तथाकथित बुराइयों के आधार पर हरा सकते हैं। अगर एक पार्टी या नेता सत्तासीन नेता को नहीं हरा सकता तो सभी पराजितों (Mission 2024) को एक साथ किया जाए तो क्या कई पराजित मिल कर विजय के योग्य हो जाएंगे ?

एक सामान्य मतदाता आपके पक्ष में अपना विचार बदल सके इसके लिए एक ठोस नीति और सोच की आवश्यकता होगी। आप राहुल गांधी, ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, स्टालिन, के.चंद्रशेखर राव, पिनाराई विजयन, अखिलेश यादव, मायावती, नीतीश कुमार, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव, नवीन पटनायक और वाई.एस. को एक ही मंच पर देखें और कल्पना करें कि किस तरह का वातावरण ये आगे चल कर निर्मित करेंगे। क्या ये भारतीय मतदाता भयंकर रूप से भ्रमित नहीं कर देंगे? ऐसा कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है कि इन उन सभी को भाजपा के खिलाफ एक गठबंधन में एक साथ लंबे समय के लिए देखा जा सकें। इनमें से कुछ राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट (Mission 2024) हो सकते हैं, उदाहरण के लिए अधिकांश क्षेत्रीय दल। लेकिन कई अपने गृह राज्यों में कांग्रेस के कट्टर विरोधी हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्हें साथ पिरोये रखने के लिए कोई दार्शनिक या वैचारिक ज़मीन नहीं।

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केरल में कांग्रेस और वामपंथ लगातार विरोधी बने हुए हैं। यदि वे केरल में सीटों का बंटवारा कर सकते हैं तो भी यह संभव नहीं कि कई वामपंथी मतदाता सिर्फ मोदी को बाहर रखने के लिए कांग्रेस को वोट दे दें। विपक्ष में एक समान विचारधारा और संदेश का गहरा अभाव है| मतदाता इतना चतुर है कि सुविधा पर आधारित गठबंधन की बारीकी को समझ सकता है, जिसमें विविध और अक्सर परस्पर विरोधी हितों वाले लोग सिर्फ एक ऐसे व्यक्ति को बेदखल करने के लिए हाथ मिला रहे हैं, जिसे उन्होंने दो बार बड़ी संख्या में वोट दिए हैं। एकजुट विपक्ष कुछ विशिष्ट, सीमित स्थितियों में, विशेषकर राज्यों के स्तर पर काम कर सकता है, लेकिन बिना किसी समान वैचारिक या राजनीतिक सोच वाले के विविध हितों वाली शानदार, अविजेय अखिल-भारतीय सेना के रूप में कभी नहीं।

विपक्षी एकता के लिए पहला वास्तविक प्रयास 1967 में किया गया था। भारत गंभीर आर्थिक और सामाजिक कठिनाई से गुजर रहा था, दो युद्धों (1962, चीन और 1965, पाकिस्तान), दो भयंकर सूखे और पद पर रहते हुए लगातार दो प्रधानमंत्रियों (नेहरू और शास्त्री) की मृत्यु के बाद से। इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री के रूप में अनुभवहीन थीं और नेहरू के बाद होने वाले पहले चुनाव में वह पराजित प्रतीत हो रही थीं। उन्होंने थोड़ा बहुमत तो हासिल कर लिया, लेकिन कई विपक्षी दलों ने इतनी सीटें जीत लीं कि प्रमुख राज्यों में उन्हें सत्ता से वंचित होना पड़ा।

एक ढीली-ढाली व्यवस्था के तहत इंदिरा गांधी को  सत्ता से बाहर रखने के एक लक्ष्य के साथ वे राज्य-स्तरीय गठबंधन में एकजुट हुए| इसने आने वाले समय के लिए विपक्षी एकता का खाका तैयार किया। यह भी साबित हुआ कि अगर लोग केवल किसी को सत्ता से बाहर रखने के लिए एक साथ आते हैं, तो वे लंबे समय तक एक साथ नहीं रहते हैं। विपक्ष ने अपनी वैचारिक और राजनीतिक पहचान को जनता पार्टी के रूप में एकजुट कर लिया, लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद, विचारधाराओं के विरोधाभास, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और कई अंतर्निहित विकृतियों के कारण केवल दो वर्षों में ही खंडित हो गया।

आज की राजनीति प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों के बीच संघर्ष की अभिव्यक्ति नहीं है। अभी तो ऐसा ही लग रहा है कि नरेंद्र मोदी को हटाने की विपक्षी गठबंधन की बात भी पूरी तरह से उनके फायदे के लिए ही काम करेगी: वे कहते हैं ‘मोदी हटाओ’; मोदी जी कहते हैं ‘भारत को विश्वगुरु बनाओ’। वे कहते हैं ‘मोदी हटाओ’; मोदी जी कहते हैं भारत को वैश्विक शक्ति बनाओ। दोनों बिलकुल अलग बातें हैं।

सत्त्तासीन दल को हराना और सत्ता हासिल करना विपक्ष की पूरी तरह से वैध महत्वाकांक्षा है, पर इसके लिए उन्हें दो चीज़ों की ज़रूरत है: एक नेता और एक विचारधारा। यदि वे इन्हें इकट्ठा नहीं कर सकते हैं, तो उनके लिए अगला सबसे अच्छा विकल्प है भाजपा की संख्या को सीमित करने की कोशिश करने के लिए राज्य-स्तरीय, संघर्ष-मुक्त गठबंधन बनायें। नहीं तो महागठबंधन की बातें और योजनाएं वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही मदद करेंगी।

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