Chhath Puja Mythological Story: चार दिनों के आस्था के महापर्व का आज तीसरा दिन है। कार्तिक शुक्ल की चतुर्थी को ‘नहा-खा’ से छठ महापर्व शुरू होता है। दूसरे दिन पंचमी को दिनभर निर्जला उपवास और शाम को सूर्यास्त के बाद व्रती महिलाएं भोजन ग्रहण करती हैं। जबकि तीसरे दिन षष्ठी को डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, वहीं चौथे दिन सप्तमी को सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद पारण के साथ इस महापर्व का समापन होता है। छठ महापर्व की शुरुआत 24 अक्टूबर से हो रही है। महापर्व छठ पर भगवान सूर्य के साथ-साथ छठी मैया की उपासना की जाती है। इस महापर्व का संबंध रामायण यानी त्रेतायुग और महाभारत काल द्वापर युग से है। आचार्य आशीष राघव द्विवेदी से जानते हैं छठ पूजा से जुड़ी मान्यताएं और इसके महात्म के बारे में…
भगवान राम ने की थी सूर्य देव की आराधना
मान्यता के मुताबिक, त्रेतायुग यानी रामायण (Ramayana) काल से ही छठ पूजा होती चली आ रही है। बताया जाता है कि वनवास से अयोध्या लौटने के बाद श्री राम ने सूर्य देव की पूजा की थी। राज्यभिषेक के बाद भगवान राम और माता सीता ने कार्तिक शुक्ल की षष्ठी सूर्य देव के सम्मान में को उपवास रखकर उनकी पूजा अर्चना की थी। इसके बाद से यह पूजा एक महापर्व के रूप में मनाई जाने लगी।
सूर्य देव के बहुत बड़े भक्त थे कर्ण
महाभारत (Mahabharata) काल यानी द्वापर युग में सूर्य देव के पुत्र कर्ण उनके बहुत बड़े भक्त थे। वे प्रति दिन घंटों पानी में खड़े रह कर उनकी पूजा कर उन्हें अर्ध्य दिया करते थे। यही कारण है कि सूर्य देव की कर्ण पर सदैव कृपा रहती थी। माना जाता है कि इसके बाद से ही सूर्य देव की पूजा और उनको अर्घ्यदान देने की परंपरा की शुरुआत हुई।
द्रौपदी ने किया छठ व्रत का अनुष्ठान
छठ पूजा को लेकर महाभारत काल से एक अन्य कथा द्रौपदी से जोड़कर बतायी जाती है। ऐसी मान्यता है कि पांडव जुए में अपना सब कुछ हार गए तो दरिद्रता चरम पर आ गयी। उन्होंने सब कुछ खो दिया। तभी द्रौपदी ने इस व्रत का अनुष्ठान किया और श्रद्धापूर्वक सूर्य देव की पूजा आराधना की। द्रौपदी के इस अपार भक्ति से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने अपनी कृपा दृष्टि उन पर बरसाई। कहते हैं इसके बाद से ही पांडवों को उनका पूरा साम्राज्य फिर से वापस मिल गया।
राजा प्रियंवद से भी जुड़ी है छठ पूजा की मान्यता
छठ पूजा से जुड़ी कई कहानियां जुड़ी हुई हैं। महाभारत काल से निरंतर छठ पूजा की कई कथाएं हैं। एक पौराणिक कथा की मानें तो राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी। उनकी पत्नी मालिनी इस बात से काफी दुखी रहती थीं। एक दिन वे कश्यप ऋषि के पास पहुंचकर उन्हें अपने मन की चिंता बतायी। इसके बाद उन्होंने राजा प्रियंवद को पुत्र सुख पाने के लिए एक यज्ञ करने को कहा।
पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ
कश्यप ऋषि के सलाह राजा प्रियंवद ने मानकर पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया। इसमें ऋषि और मुनि सम्मिलित हुए। उनकी सबकी सहायता से यज्ञ पूर्ण हुआ। रानी मालिनी को यज्ञ का खीर प्रसाद के रूप में ग्रहण करने को दिया गया। उसी यज्ञ और प्रसाद के प्रभाव से रानी मालिनी गर्भवती हो गईं। इस शुभ समाचार को पाकर राजा पियंवद की प्रसन्नता की पराकाष्ठा न थी।
पुत्रवियोग का वह क्षण
रानी मालिनी ने पुत्र को जन्म दिया पर वैद्य ने जब बताया कि पुत्र मृत पैदा हुआ है तो इससे राजा प्रियंवद शोकमग्न हो गए। वे पुत्र के शव को लेकर शमशान गए और पुत्र के वियोग में प्राण देने का भी फैसला कर लिया। पर जिस क्षण वे अपने प्राण त्यागने के लिए आगे बढ़े, उसी क्षण देवी देवसेना प्रकट हुईं। उन्होंने राजा प्रियंवद को प्राण त्यागने से रोक दिया।
मां षष्ठी की कृपा से
देवी देवसेना ने बताया कि उनका नाम षष्ठी है। प्रियंवद का बताया गया कि वे देवी षष्ठी की पूजा करें और अपनी प्रजा को भी इसके लिए प्रेरित करें। इसके बाद राजा पियंवद देवी षष्ठी की आज्ञा से राजमहल में आ गए। उन्होंने पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को छठ पूजा की और व्रत रखा। छठी मैया की कृपा से राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उसके बाद से प्रत्येक वर्ष राजा प्रियंवद के राज्य में छठ पूजा होने लगी।
धार्मिक मान्यताओं की मानें तो यदि आप कोई मनोकामना करते हैं और छठ पूजा पूरे विधि विधान से करते हैं, तो छठी मैया की असीम कृपा होती है व संतान सुख, समृद्धि की प्राप्ति होती है।
(डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी ज्योतिष पर आधारित है। यहां केवल सूचना के लिए दी जा रही है। Vidhan News इसकी पुष्टि नहीं करता है।)
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