
फिल्म रिव्यू
निजी जिंदगी को भी दर्शाया गया
कहानी के पहले हिस्से को सैम की निजी जिंदगी से भी बुना गया है, जहां उनकी शादी सिल्लू (सान्या मल्होत्रा) से होती है। उन्हें सेना के अंदर की राजनीति का शिकार भी होना पड़ता है। उन पर केस चलाया जाता है। साथ ही सैम को दूसरे विश्वयुद्ध में भाग लेते हुए भी दिखाया गया है। यहां हमें यह देखने भी मिलता है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू (नीरज काबी) सैम की बहादुरी और दूरदर्शिता के कायल थे। दूसरे भाग में कहानी में इंदिरा गांधी (फातिमा सना शेख) का आगमन होता है। इंदिरा और मानेकशॉ के बीच वैचारिक मतभेद भी है, मगर अंततः मानेकशॉ उन पर भी अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब होते हैं। पाकिस्तान में होने वाले तख्तापलट से आशंकित होकर जब इंदिरा गांधी उनसे पूछती हैं कि कहीं वे हिंदुस्तान में भी ऐसा करने की तो नहीं सोच रहे, तब वे दो टूक जवाब देते हैं कि इंदिरा को डरने की जरूरत नहीं। उन्हें राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं। वे अपनी राजनीति करें और उन्हें उनका काम करने दें। 1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजाद करने की लड़ाई के दौरान इंदिरा चाहती हैं कि मानेकशॉ मार्च में धावा बोल दें, मगर वे बेबाक होकर मना करते हुए कहते हैं कि अभी उनकी सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है। वे 5 दिसंबर की तारीख देकर युद्ध की तैयारी के लिए वक्त मांगते हैं। समय आने पर इंदिरा जब उनसे पूछती हैं कि क्या वे युद्ध के लिए तैयार हैं? तब उनका जवाब होता है, ‘मैं हमेशा तैयार हूं स्वीटी।’
फर्स्ट हाफ के बाद भटक गई फिल्म
निर्देशक मेघना गुलजार ने बायोपिक के लिहाज से करारा विषय और विक्की कौशल के रूप में दमदार अभिनेता को चुना, मगर अड़चन तब आती है, जब कहानी कई कालखंडों में बंटी नजर आती है और दर्शक उससे जुड़ नहीं पाता। स्क्रीनप्ले कमजोर है। फर्स्ट हाफ बहुत ही सपाट है। सेकंड हाफ बेहतर है। क्लाइमैक्स मजबूत है। फिल्म को डोक्यूड्रामा के अंदाज में दर्शाया गया है। फिल्म के कई दृश्य रोचक बन पड़े हैं, जैसे गोरखा रेजिमेंट के साथ सैम की बातचीत, अपने रसोइये के साथ उनका रिश्ता, इंदिरा गांधी के साथ चुटीले पल, मगर फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में मनोरंजन कर पाती है। अपने फर्ज के लिए किसी भी हद तक जाने को राजी मानेकशॉ को मेघना अपनी निर्देशकीय खूबियों से जीवंत कर जाती हैं, मगर उनके अलावा अन्य ऐतिहासिक किरदारों का चरित्र चित्रण में वे कमजोर पड़ जाती हैं।
फिल्म के बाकी किरदार पड़े फीके
मानेकशॉ को हीरो बनाने के चक्कर में अन्य किरदार फीके पड़ गए हैं। युद्ध के दृश्यों में तनाव और थ्रिल की कमी नजर आती है, हां 1971 की लड़ाई देखने योग्य है। हालांकि मेघना ने फिल्म में कई जगह वास्तविक फुटेज का इस्तेमाल करके कहानी को ऑथेंटिक कवच पहनाने की कोशिश जरूर की है। जय आई पटेल की सिनेमैटोग्राफी और नितिन वैद्य का संकलन ठीक-ठाक है। शंकर-एहसान-लॉय के संगीत में गुलजार के लिखे गीत, ‘बढ़ते चलो, बंदा, दम है तो आजा अच्छे बन पड़े हैं।
मानेकशॉ के रोल में फिट हैं विक्की
ये हर तरह से विक्की कौशल की फिल्म है और उन्होंने मानेकशॉ के चरित्र में जिस तरह का अंदाज दिखाया है, वो आपको मोहित किए बिना नहीं रहता। किरदार में उनका बॉडी लैंग्वेज, संवाद अदायगी और चरित्र के लिए हद पार वाला समर्पण पर्दे पर साफ नजर आता है। इस तरह के गौरवशाली किरदार को निभाने का भार अपने आप में बड़ा था, मगर विक्की उसे बहुत खूबसूरती से निभा ले जाते हैं। उन्होंने चरित्र के हर पहलू को खूब मांजा है।
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