Sirf Ek Bandaa Kaafi Hai Movie Review : बाबाओं को बेनकाब करता ‘बहादुर बंदा’

Sirf Ek Bandaa Kaafi Hai Movie Review : न‍िर्देशक अपूर्व कार्की की फिल्‍म 'स‍िर्फ एक बंदा काफी है' की कहानी Man vs Godman की जंग है। इस फिल्म की जितनी भी तारीफ की जाए कम है।

फिल्म: ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’
कलाकार: मनोज बाजपेयी, विपिन शर्मा, सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ, अदिति सिन्हा अद्रिजा, इखलाक अहमद खान, बालाजी लक्ष्मीनरसिम्हन, अभिजीत लाहिड़ी और विवेक टंडन
लेखक: दीपक किंगरानी
निर्देशक: अपूर्व सिंह कार्की
रिलीज डेट: 23 मई 2023
ओटीटी: जी5

Sirf Ek Bandaa Kaafi Hai Movie Review
Sirf Ek Bandaa Kaafi Hai Movie Review

‌‌‌‌Sirf Ek Bandaa Kaafi Hai Movie Review : ‘ये दिलाये फतह, लॉ है इसका धंधा, ये है रब का बंदा’। जब ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ शुरू होती है और मनोज बाजपेयी को पहली बार दिखाया जाता है तो बैक ग्राउंड में यही गीत सुनाई देता है। बंदा खास है, इस बात का अंदाजा इसी गीत से लग जाता है। यह फिल्म दरअसल आसाराम के जीवन से जुड़ी है और पी सी सोलंकी नाम के जिस वकील ने आसाराम को सज़ा दिलवाई यह उसी के जीवन पर आधरित कहानी पर बनी है।

दिये और तूफान की कहानी

फरेब और छल की दुनिया में सोलंकी एक दिये के समान है। सत्ता और धन का शोर चारों तरफ है और एक अकेला बंदा सच और आंतरिक दृढ़ता के अपने दीप को आंधी से बचा कर आखिर तक उसकी लो जलाये रखता है। अक्सर लोगों के मन में सवाल आता है कि क्या एक ही इंसान पूरे सिस्टम के खिलाफ लड़ सकता है। क्या एक साधारण बंदे के लिये यह मुमकिन है कि वह एक बड़ी सियासी और धार्मिक ताकत वाली हस्ती के खिलाफ भिड़ जाये, बच निकले और आखिर में उसे फतह भी हासिल हो? भारतीय समाज में जहां किसी धार्मिक बाबा की हैसियत बहुत ऊंची बना दी गई है, उसके विरोध में जंग का ऐलान कर देना सेशंस कोर्ट के किसी छोटे वकील के लिये क्या मुमकिन है भी? मनोज बाजपेयी ने पी सी सोलंकी की भूमिका अदा की है और यह फिल्म साफ तौर पर आसाराम की सच्ची घटना पर आधारित है। किसी को देखते ही समझ आ जायेगा कि फिल्म का बाबा वास्तविक दुनिया का कौन सा बाबा है। फिल्म बनाने वालों और अभिनेताओं की हिम्मत की भी दाद देने की जरूरत है, क्योंकि हमारे समाज में बाबा बने किसी तथाकथित धार्मिक व्यक्ति के लिये सब कुछ क्षम्य है और खास कर यदि उसके खिलाफ किसी छोटी बच्ची ने विरोध शुरु किया हो तो समाज इस जंग को और भी मुश्किल बना देता है। ऐसे में ऐसी फिल्म बना देना भी साहस का काम है।

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कानून के बारे में जानकारी देती फिल्म

फिल्म पॉक्सो कानून की बारीकियों के बारे में भी जानकारियां देती है। यह बार बार याद दिलाती है कि कैसे इस कानून को 2012 में बच्चों के यौन शोषण की रोक थाम के लिये ही बनाया गया है और किस तरह इस कानून का गलत इस्तेमाल किया जाता है। किस तरह मुजरिम के वकील इस कानून में कमियां निकालने की कोशिश करते हैं और एक कुशल वकील कैसे उनके शातिर इरादों को भांप कर उनका मुकाबला ले सकता है। इस देश की हर बच्ची और उनके अभिभावकों को पोक्सो कानून की जानकारी होनी ही चाहिये। समाज में तरह तरह के वेश में दरिंदे घूम रहे हैं और यह कानून पीड़ितों के लिये एक मजबूत हथियार का काम करता है।

साहसी बच्ची की कहानी

यह कहानी शुरू होती है एक नाबालिग लड़की नू और उसके माता पिता के दिल्ली के कमाल नगर थाने जाने के साथ। थाने में वे एक बाबा के खिलाफ नाबालिग के साथ यौन शोषण का केस दर्ज करवाते हैं। इसके बाद पुलिस बाबा को गिरफ्तार करती है। बाबा के भक्त भड़क जाते हैं और पहला वकील पैसे खाकर मामला रफा दफा करने की फिराक में रहता है। ऐसे में लड़की के माता-पिता सहारा लेते हैं पी सी सोलंकी का जो खुद मनोज बाजपेयी हैं। वह आखिरकार इस केस में बड़े बड़े वकीलों को भी पस्त कर देते हैं।

सोलंकी की शख्सियत में कई परतें

मनोज बाजपेयी सोलंकी की भूमिका में एक ऐसे धागे का काम करते हैं जो पूरी फिल्म को बांधे रखता है। एक ओर घर पर वह अपनी बुजुर्ग मां को लगातार अपना ब्लड प्रेशर कम रखने की हिदायत देता रहता है और दूसरी तरफ अपने गोद लिये बेटे बडी़ का पूरा ख्याल रखता है। बाप बेटे दोनो एक दूसरे को बडी़ बुलाते हैं और यह सुनाने में बड़ा प्रिय लगता है। ऐसा लगता है कि सोलंकी सिर्फ सच्चाई और प्रेम के वास्ते काम कर रहा है। बाबा के नुमाइंदे उसके लिये 20 करोड़ की रिश्वत लाते हैं तो उन्हें बुरी तरह जलील करके भगा देता है। बेटे और मा के साथ सोलंकी के मधुर संबंध उसके व्यक्तित्व के कोमल पह्लू को उजागर करते हैं। ऐसा नहीं कि सोलंकी भय से मुक्त हो चुका है। बाबा के गुंडे जब गवाहों को लगातार मार कर खत्म करने में लगे रह्ते हैं तो उसके जेहन में भी डर आता है पर यह डर कभी भी उसके काम पर रत्ती भर असर नहीं डालता।

केस स्वीकार करतें समय जब पीडि़ता का पिता उससे फीस के लिये पूछ्ता है तो वह सिर्फ ‘बिटिया की मुस्कान’ मांगता है। यह सीन मन को छू जाता है। फिल्म बताती है कि दुनिया को बदलने के लिये किसी सूरमा की दरकार नहीं। सुबह अपने पुराने स्कूटर को किक मार कर चलाने वाला, अपनी नई शर्ट पर प्राइस टैग लगा कर ही कोर्ट तक पहुंच जाने वाला बंदा भी एक असाधारण योद्धा बन कर जीवन के किसी क्षेत्र में महारथी बन सकता है।

धर्म का वास्तविक अर्थ

धर्म का असली मतलब क्या है फिल्म इस बारे में भी एक सशक्त बयान देती है। एक तरफ तो एक तथाकथित धार्मिक बाबा है जो लोगों को शांति और सदाचार का ज्ञान देता है पर हकीकत में एक बलात्कारी है, जो अपने आश्राम में आने वाली नाबालिग बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाता है। और दूसरी तरफ एक साधारण सा वकील है जो अपने काम में पूरी मेहनत के साथ लगा है, आदर्शवादी है और पैसे एवं सत्ता के बल पर नाचने वाली दुनिया को ठेंगा दिखाते हुये अपना जीवन चला रहा होता है। धर्म वाणी में और पह्नावे में नहीं बल्कि आचरण में है, यह संदेश मनोज बाजपेयी अपने किरदार के माध्यम से लोगों को देते हैं। मनोज बाजपेयी नियमित रूप से पूजा पाठ करता है। शिव भक्त है और अपने भीतर के राक्षसों से लड़ने की हिदायत अपने बच्चे को भी देता है। वह सही अर्थ में धार्मिक है, आडम्बरों और दिखावे से दूर।

बलात्कार की पीडि़ता बच्ची के रूप में नू ने बढ़िया अभिनय किया है। एक घटिया सोच रखने वाले समाज में वह स्त्रियों को साहसी होने का संदेश देती है। उसके माता पिता उसके साथ लगातार उसके संघर्ष में साथ देते हैं यह बात भी दर्शकों को एक सार्थक संदेश दे जाती है। नू की भूमिका निभाई है अद्रिजा सिन्हा ने।

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मनोज बाजपेयी हैं असाधारण एक्टर

अभिनय पर बारीक नज़र डालें तो मनोज फिर से एक असाधारण एक्टर के रूप में दिखते हैं। फिल्म के आखिरी सीन में जब मामले में बहस चल रही होती है, फैसले का वक्त करीब होता है, उस समय मनोज के चेहरे का भाव देखते ही बनता है। आखिरी कोर्ट सीन में मनोज जादुई अभिनय के शिखर पर हैं। अपने भावनात्मक उफान को वह अपने चेहरे के दाहिनी ओर की एक मांसपेशी की हरकत के जरिये व्यक्त करते हैं। इसके तुरंत बाद कैमरा जाता है उनकी उँगलियों की तरफ और उनकी उँगलियों की हरकत ऐसा बहुत कुछ कह जाती है जो ठीक पहले उन्होने अपने लंबे डायलॉग के जरिये कहा था। उस समय हॉलीवुड अभिनेता डेन्ज़ेल वाशिंगटन की याद आती है जो अपने होठों और आँखों का खूब इस्तेमाल करते हैं। मनोज बाजपेयी फिल्म में जोधपुर में काम करने वाले वकील बने हैं और उनकी हिंदी में राजस्थानी लहजे का स्पर्श उनके बेहतरीन अभिनय का ही एक और उदाहरण है। मनोज ने गली गुलिया या अलीगढ़ में बेहतर रोल किया या इस फिल्म में इस बारे में कुछ भी कहना नामुमकिन है। जादूगर मनोज बाजपेयी की हैट के नीचे से कब क्या निकलेगा, कोई नहीं बता सकता।

सटीक निर्देशन

अपूर्व सिंह कार्की का डायरेक्शन सटीक है। इसे उनका सबसे बेहतरीन काम कहा जा सकता है। वह एक कमाल के डायरेक्टर हैं। बहुत सिंपल तरीक से भी जबरदस्त कहानी कही जा सकती है यही साबित करते हैं। ऐसी कहानी भी मजबूती से कही जा सकती है जिसके बारे में सब जानते हैं।

तारीफ इस फिल्म के प्रोड्यूसर विनोद भानुशाली की भी करनी चाहिए जो ऐसी कहानी को इस तरह से सामने लाने की हिम्मत कर पाए। अगर ऐसी कहानियों में पैसा लगाने की हिम्मत प्रोड्यूसर करेगा नहीं तो ये कहानियां बनेंगी नहीं तो लोग सजग कैसे होंगे। इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए। धार्मिक बाबाओं को बेनकाब करने वाली इस तरह की अधिक फिल्मे बननी चाहिये। आज के समय के लिये यह बहुत जरूरी फिल्म है। इसका सशक्त सामाजिक संदेश हैं और यह बडी़ मजबूती के साथ यह हमारे समाज की एक घटिया सच्चाई कें साथ जूझती दिखती है।

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