Health Tips By Mahatma Gandhi: गांधी को महात्मा के नाम से बुलाए जाने की एक बड़ी वजह यह थी कि उनकी दृष्टि जीवन के किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी।गांधी जी ने जीवन के समूचे कैनवस को नजदीक से निहारा, इसके साथ अपने अनूठे प्रयोग सभी के साथ साझा किए, किसी पर उनको (Gandhi Jayanti) थोपा नहीं और इस बात का बराबर ध्यान रखा कि वे गलत भी हो सकते हैं। यह दृष्टिकोण उसी शख्स का हो सकता है जो जीवन का कलाकार भी हो और वैज्ञानिक भी।
आहार-सुधारक भी
समाज सुधारक होने के साथ गांधी जी आहार-सुधारक भी थे; उनको निःसंकोच भारत का पहला हेल्थ गुरु, फिटनेस गुरु और डायटीशियन माना जा सकता है। सही आहार और सही जीवन के बीच के गहरे संबंध को वह खूब अच्छी तरह समझते थे। सही आहार को वह स्वस्थ देह के अलावा, राजनीति, नैतिकता, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के (Gandhi Jayanti) साथ भी जोड़ कर देखते थे।
वीगन की तरफ रूझान
1929 में अफ्रीकन अमेरिकन कृषि वैज्ञानिक जॉर्ज वाशिंगटन कार्वर ने भविष्य के स्वतंत्र भारत के स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती के लिए एक ख़ास किस्म के भोजन की सिफारिश की थी, जिसमे गेंहू का आटा, मक्का, फल और सोयाबीन या मूंगफली से बना हुआ दूध शामिल था। उनके अनुसार यह भोजन भावी भारत के (Health Tips By Mahatma Gandhi) स्वास्थ्य को दुरुस्त रखने वाला था।
गांधी जी उनका सुझाव पसंद आने के दो मुख्य कारण थे: पहला यह कि यह देश के आखिरी आदमी की पहुंच के भीतर था और दूसरा यह कि गांधी जी वर्षों से वीगन बनने के बारे में सोच रहे थे।
आहार स्वायत्तता’ के सिद्धांत
उनका मत था कि दूध पीना नैतिकता की दृष्टि से गलत है। गाय, भैस के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार, उनका दूध उनके ही बच्चों को पर्याप्त मात्र में न मिल पाना, इंसान के लिए उसका उपयोगी नहीं होना, वगैरह उनके दूध विरोधी होने के कारण थे।
दूध बंद करने पर उन्हें कमजोरी (Gandhi Jayanti) महसूस होती थे इसलिए कार्वर (Health Tips By Mahatma Gandhi) के डायट प्लान में उनको अपनी दुविधा से निकलने का रास्ता दिख रहा था| इसमें दूध भी था और वह किसी पशु का नहीं था। यह प्लान गांधी जी के ‘आहार स्वायत्तता’ के सिद्धांत के भी अनुकूल था।
बकरी का दूध
दूध छोड़ कर गांधी जी एक तरह से वीगन होने की यात्रा शुरू कर चुके थे, पर बाद में उन्होंने बकरी का दूध पीने का फैसला किया| बकरी का दूध भी पीने के लिए वे मजबूरी में ही तैयार हुए थे पर (Health Tips By Mahatma Gandhi) इसके कई फायदे थे जिनसे वह परिचित थे। यह सुपाच्य होता है, इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है, शरीर में लोहे की कमी यानी अनीमिया होने से रोकता है।
1931 के गोल मेज सम्मलेन में गांधी जी की दो बकरियां (Gandhi Jayanti) भी लंदन गई थीं। उनमें से एक थी निर्मला जिसकी मौत का ज़िक्र अमेरिकी अख़बारों ने भी किया था!
जब छुप कर खाया गोश्त
अपनी जवानी में गांधी जी को एक बार यह महसूस हुआ कि यदि उनको अंग्रेजों को हराना है तो मजबूत बनना पड़ेगा और इसके लिए उनको अंग्रेजों की तरह मांस भी खाना होगा| एक दिन छिप कर (Gandhi Jayanti) उन्होंने गोश्त खा लिया और फिर उन्हें रात को बुरे सपने आये जिसके बारे में वह लिखते हैं कि जब भी उनको नींद आती, ऐसा लगता कि कोई जिंदा बकरी उनके पेट में मिमिया रही है और वह गहरे ग्लानि भाव के साथ कूद कर बिस्तर से उठ जाते थे।
नमक के प्रति सजगता
आज के आधुनिक डायट प्लान पर गांधी जी ने पहले प्रयोग किए थे। कम कैलरी वाला भोजन, ज्यादा फल, सब्जियां और सूखे फल लेना उनके रोज़ के भोजन में शामिल था। आहार का प्रश्न उनके लिए आत्म संयम, आध्यात्मिक और व्यक्तिगत प्रगति के साथ जुड़ा था। भोजन में नमक की मात्रा को लेकर वह काफी सजग थे।
नमक तो उनके व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन के साथ भी जुड़ा रहा, और (Gandhi Jayanti) इसे लेकर उन्होंने एक बड़ा आन्दोलन भी किया। आपको मालूम होगा कि गांधी जी स्वास्थ्य के बारे में इतने सजग थे, पर उनको हाई ब्लड प्रेशर था और 1937 और 1940 के बीच उनका ब्लड प्रेशर करीब 220/110 के आस-पास रहा करता था।
कच्चे भोजन के प्रति सजगता
अक्सर गांधी जी सिर्फ कच्चे भोजन पर रहते थे| उनको अहसास था कि पोषक तत्व पकाने पर नष्ट हो जाते हैं| उन्होंने लिखा है: “आंच लगते ही विटामिन ए नष्ट होता है”। कच्चे भोजन से जुड़े गांधी जी के (Gandhi Jayanti) आहार दर्शन का एक सामाजिक राजनीतिक पहलू भी था क्योंकि गांधी जी यह मानते थे कि देश के गरीब लोगों के लिए इस तरह का भोजन आसानी से उपलब्ध होगा और इसका पोषक तत्व ख़त्म नहीं होगा। कच्चे साग-सब्जियां चबाने में दिक्कत हो सकती है, इसलिए वे उन्हें घिस देने का सुझाव देते थे।
दलिया का महत्व
दलिया गांधी जी को खास तौर पर पसंद था| अपना गेंहू का दलिया वह बड़े सलीके से अपनी देख-रेख में ही तैयार करवाते थे। अधिक फाइबर वाले सुपाच्य भोजन के रूप में दलिये के महत्व को हर डायटीशियन आज जानता है। भोजन की गुणवत्ता के अलावा वह इसकी मात्रा पर भी बहुत जोर देते थे, और अक्सर अपना भोजन तोले में नाप कर लेते थे।
कम भोजन व वजन
कम भोजन करने की अपनी आदत का ही परिणाम था कि गांधी जी का वज़न कभी 46.7 किलो ग्राम से अधिक नहीं हुआ| इसके लिए गांधी जी रोज़ाना औसतन 18 किमी या बाईस हज़ार कदम (Gandhi Jayanti) चलते थे। 1913 से 1948 के बीच वह करीब 79000 किमी चले होंगे जो कि पूरी दुनिया के चारों ओर दो बार चलने के समान है! आजकल के सभी हेल्थ एक्सपर्ट्स करीब 10 हज़ार कदम रोज़ चलने की सलाह देते हैं।
उपवास पर भरोसा
गाँधी जी जब दक्षिण अफ्रीका के डरबन में थे तब उन्होंने बेकर से ब्रेड खरीदने की जगह घर में हाथ से मोटे पिसे हुए आटे की रोटी खाना शुरू किया। घर की चक्की में गेंहू पीसने को वह अच्छी कसरत भी मानते थे। दक्षिण अफ्रीका में अपने मित्र हर्मन केलेंबाख के साथ रहते हुए गांधी जी ने सिर्फ फलों पर रहने का भी प्रयोग किया था। उपवास पर उन्हें बहुत भरोसा था और आम तौर पर वह एकादशी के दिन उपवास पर रहते थे।
चिकित्सा में स्वराज
स्वास्थ्य स्वराज की गांधी जी को बड़ी फिक्र थी। उन्होंने कहा था कि देश को पश्चिम से दवाइयां आयात करने की जरूरत नहीं, क्योंकि यहाँ के गांवों में ही कई तरह की प्राकृतिक औषधियां उपलब्ध हैं। वह लोगों को सही जीवन जीने की सलाह देते थे, और सही भोजन को इससे अलग नहीं किया जा सकता| एलॉपथी और आयुर्वेद के अलावा वे हर तरह की चिकित्सा पद्धति का अध्ययन करते थे, पर प्राकृतिक चिकित्सा को ही तरजीह देते थे।
आहार दर्शन
ज्यादा स्टार्च और चीनी खाने के विरोधी गांधी जी थोड़ी मात्रा में गुड़ खाने की सलाह देते थे| महीन पिसे हुए आटे और पॉलिश किये हुए चावल का भी वह विरोध करते थे| यह सब कुछ आज के आधुनिक सलाहकारों के ज्ञान के मुताबिक ही था, फर्क बस इतना ही था कि गांधी जी ने अपने खुद के जीवन में इनका प्रयोग करते हुए ये बातें सीखीं और लोगों के साथ साझा कीं।
बुद्ध की तरह गांधी जी भी मानते थे कि चेतना के निर्माण में भोजन की भूमिका होती है| नशे से दूर रहना, रोज़ व्यायाम करना, सादा भोजन करना, कम खाना, नमक और शक्कर का उपयोग कम करना, भूख के लिए खाना न कि स्वाद के लिए, कच्चा भोजन ज्यादा लेना, गांधी जी का आहार दर्शन इन्ही बातों के इर्द गिर्द गढ़ा गया था।
दो हिस्से में भोजन
उनका दिन शुरू होता था गुनगुने नींबू पानी के साथ। आम तौर पर वह दिन भर में 100 ग्राम गेंहू से बनी चीज़ें, 80 ग्राम सूखे फल और करीब 100 ग्राम हरी पत्तियों वाली सब्जियां लेते थे। दिन भर में छह नींबू और शहद लेते थे| अपने भोजन को वे दो हिस्सों में बांटते थे, सुबह 11 बजे और शाम को 6.15 बजे। इनके बीच वह सिर्फ पानी पीते थे।
वे तीन किताबें
अपने भोजन संबंधी प्रयोगों पर महात्मा ने तीन किताबें लिखीं| ‘डायट एंड डायट रिफॉर्म्स’, ‘द मॉरल बेसिस ऑव वेजीटेरियनिज्म’ और ‘की टू हेल्थ’। ये सभी किताबें आज भी प्रासंगिक हैं। इसके अलावा निको स्लेट की किताब “गांधीज़ सर्च फॉर अ परफेक्ट डायट” महात्मा से प्रयोगों के बारे में दिलचस्प जानकारियां देती हैं। गांधी जी ने स्वास्थ्य को और सफाई को नजदीक से जोड़ कर देखा और 7 जनवरी, 1946 के ‘हरिजन’ में गांधी जी लिखते हैं कि जो लोग इधर-उधर थूकते हैं, और धरती पर गंदगी फैलाते हैं वे प्रकृति और मानव के विरुद्ध पाप करते हैं।
देह ईश्वर का मंदिर है| धरती और इसकी वायु को गन्दा करने वाला मंदिर को अपवित्र करता है। स्वच्छ भारत का सपना गांधी जी के दिल के बहुत करीब था और मौका मिलते ही वह इसका ज़िक्र करते थे।
प्रकृति से समरसता
पुणे के पास उरुली कंचन गांव में गांधी ने स्वतंत्र भारत की चिकित्सा व्यवस्था पर बहुत विचार किया था। 22 मार्च 1946 को वह एक प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा कि प्रार्थना कई रोगों का उपचार है, पर इसके लिए यह आवश्यक है कि हम सही आहार लें, ठीक से सोयें और क्रोध के वश में न रहें। इन सबसे ज्यादा जरूरी है कि हम प्रकृति के साथ समरसता बनाये रखें और उसके सिद्धांतों पर चलें। उरुली कंचन में उन्होंने गांव वालों को सफाई का पाठ सिखाया।
पंचतत्वों का सही उपयोग
पंचतत्वों का सही उपयोग बीमारियों के उपचार के लिए जरुरी है इस बात पर उन्होंने जोर दिया। 11 अगस्त के हरिजन में उन्होंने यह बात जोर देकर लिखी। 12 दिसम्बर, 1912 को गांधी जी लिखते हैं कि “नीम हकीम गांधी आपको कुछ सुझाव देना चाहता है।
उपवास करें, दिन में सख्ती से बस दो बार खाना खाएं, भोजन में मसालों का इस्तेमाल न करें, चाय, काफी वगैरह से परहेज करें जैतून के तेल (ऑलिव आयल) का प्रयोग करें, और खट्टे फल खाएं।
धीरे-धीरे अपने भोजन से पका हुआ खाना समाप्त कर दें और देखिये आपका मधुमेह ख़त्म हो जायेगा और देह स्वस्थ रहेगी|” फलों में गांधी जी संतरे खाने पर खूब जोर देते थे।
प्राकृतिक चिकित्सा के हिमायती
शुरुआत में प्राकृतिक चिकित्सा के हिमायती गांधी जी को 1919 में पाइल्स के लिए डॉ. दलाल से और 1924 में डॉ. मैडोक से अपेंडिसाइटिस का ऑपरेशन करवाना पड़ा था। 1921 में दिल्ली में एक मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन करते हुए उन्होंने आधुनिक एलॉपथी प्रणाली के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया और इस बात पर बहुत खुश हुए कि नए अस्पताल में आयुर्वेद और यूनानी दवाओं के अलावा एलॉपथी का भी इंतजाम है। वे चाहते थे कि चिकित्सा की सभी विधाएं मिलजुल कर समरसता के साथ कम करें।
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