Mental health in India: देह के चक्कर में पीछे छूटी मन की वेदना, कहां खड़ा है देश!

Mental health in India:  भौतिकवाद ने मन की समझ को स्पिरिचुअलिटी के साथ जोड़ दिया है। शिक्षा व्यवस्था चित्त को समझने पर जोर नहीं देती जबकि मन और शरीर की सेहत का गहरा और अभिन्न संबंध है। शारीरिक बीमारी में जिस तरह हम खुद की और अपने करीबियों की देखभाल करते हैं, उसे एक स्टिग्मा या कलंक की तरह नहीं देखते। उस तरह मन की सेहत को भी समझने की जरूरत है, जो अभी बहुत शुरुआती अवस्‍था में है।

संपूर्णता में सोचें

सेहत के बारे में हमने कभी संपूर्णता से नहीं सोचा, अच्छी सेहत वास्तव में देह, मन और अंतस के संतुलन का ही परिणाम है। इसी में सुख की कुंजी है।  देह हम पर हावी है और मन बहुत पीछे हो गया है। सकारात्मकता, संकल्प और आत्म संयम बहुत कारगर हैं। मानसिक तकलीफों से दूर होने के लिए।

दो किस्‍म की परेशानियां

मानसिक सेहत से जुड़ी परेशानियां आम तौर पर दो किस्म की होती हैं। साइकोटिक या मनस्तापी और न्यूरोटिक या तंत्रिका दोष से संबंधित। न्यूरोटिक बीमारियों में सामान्य भावनाओं का अनुभव भी प्रबल आवेग के साथ होता है, जैसे कि अवसाद, दुश्चिंता या बुरी तरह भयभीत होना, भय का फोबिया में बदल जाना। इन्हें सामान्य मानसिक परेशानियों की तरह देखा जाता है।

साइकोटिक समस्याएं, जैसे स्कित्जोफ्रेनिया और बाईपोलर डिसऑर्डर, अपेक्षाकृत कम होती हैं। ये व्यक्ति के वास्तविकता के बोध को विकृत कर देती हैं।

उपचार केवल विशेषज्ञ करेंगे

जिसे मतिभ्रम होता है और वह चीज़ों को जिस रूप में देखता, सुनता है, महसूस करता है, वह सामान्य से बिलकुल अलग और रोगी एवं उसके परिवार के लिए पीड़ादायी होता है। इन स्थितियों का निदान और उपचार दोनों ही विशेषज्ञ या चिकित्सक ही कर सकते हैं। गौरतलब है कि दुनिया के सबसे अधिक अवसाद ग्रस्त लोग भारत में रहते हैं!

सबसे अधिक संख्‍या

जिस देश की जड़ें गहरी आध्यात्मिकता में रहीं हैं, उसका धर्म और ज्ञान भी उसे रुग्ण नैराश्य और अवसाद का सामना करने में भी अधिक मदद नहीं कर पाया है! विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अवसादग्रस्त लोगों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है, यानी 36 फीसदी!

सर्वेक्षण पर नजर

एसोचेम की स्वास्थ्य समिति के अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि भारत में स्त्रियों के अवसाद पीड़ित होने की सम्भावना पुरुषों की तुलना में दुगुनी है। यह सर्वेक्षण दुनिया भर के 89000 लोगों के साथ बातचीत पर आधारित है। सर्वेक्षण के मुताबिक फ्रांस, नीदरलैंड्स और अमेरिका में ऐसे करीब 30 फीसदी लोग हैं जो जीवन में भयंकर अवसाद का शिकार हो चुके हैं।

आंकड़े डराते हैं

चीन में ऐसे लोगों की संख्या मात्र 12 फीसदी है, हालांकि वहां से मिली जानकारी पर भरोसा करना मुश्किल है। आम तौर पर कम विकसित देशों में अवसाद कम होता है, पर भारत एक अपवाद है। भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2019 में देश में देश में करीब 1,34, 516 लोगों ने ख़ुदकुशी की जबकि 1971 में  यह संख्या करीब तैंतालीस हज़ार थी।

इसका अर्थ है कि हमारे देश में हर रोज़ करीब 381 लोग आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या और मानसिक रुग्णता के बीच गहरे सम्बन्ध हैं, यह तो स्पष्ट ही है।

 मानसिक सेहत पर खर्च नहीं

नेशनल कमीशन ऑन माइक्रोइकोनोमिक्स एंड हेल्थ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में करीब दो करोड़ लोग स्कित्जोफ्रेनिया और बाईपोलर डिसऑर्डर जैसी गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं जबकि पांच करोड़ लोग सामान्य मानसिक परेशानियों जैसे अवसाद, दुश्चिंता से ग्रस्त हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2011 की रिपोर्ट बताती है कि भारत के कुल स्वास्थ्य बजट का सिर्फ 0.06 फीसदी ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है जबकि पड़ोस के बांग्लादेश में भी इस मद में खर्च किये जाने वाली रकम 0.44 प्रतिशत है। दुनिया के ज़्यादातर विकसित देश अपने बजट का करीब 4 फीसदी मानसिक सेहत से जुड़े शोध, चिकित्सा और परामर्श पर खर्च करते हैं।

चिकित्‍सकों का अभाव

आपको यह जानकार भी ताज्जुब होगा कि भारत में प्रति दस लाख लोगों पर सिर्फ 3.5 मनोचिकित्सक हैं! इनमे से भी अधिकाँश शहरों में बसे हैं, पर पिछले कुछ वर्षों में गाँवों में, खासकर किसानो द्वारा की गयी आत्महत्याएं यही दर्शाती हैं कि समस्या वहां भी बहुत गंभीर है, पर मेडिकल सहायता कोई नहीं।

हमारे देश में मनोचिकित्सकों, चित्तवैद्यों और नैदानिक मनोवैज्ञानिकों एवं परामर्शदाताओं का बहुत अभाव है। यहां 10 लाख नागरिकों पर सिर्फ तीन मनोचिकित्सक हैं, यानी कि वास्तव में लाखों में बस एक!

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