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Brahma Baba Ki Jeevan Kahani: दादा लेखराज से ब्रह्मा बाबा बनने की चमत्कारी यात्रा

Brahma Baba ki Jeevan Kahani: ब्रह्मा बाबा की जीवन कहानी को शब्दों में समेटना सूरज को प्रकाश दिखाने जैसा है। संक्षेप में जानें उनकी कहानी।

Brahma Baba

Brahma Baba Ki Jeevan Kahani : प्रजापिता ब्रह्मा कुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय व्यक्तिगत परिवर्तन एवं विश्व नवनिर्माण के लिए समर्पित एक आध्यात्मिक संस्थान है, जिसका नेतृत्व स्त्रियों द्वारा होता है। वर्ष 1937 में स्थापना के बाद से आज इसकी दुनिया भर के 137 देशों में शाखाएं हैं। संयुक्त राष्ट्र ने इसे एक गैर-सरकारी संगठन (इकोनॉमिक एवं सोशल काउंसिल की परामर्शदाता) के तौर पर मान्यता दी है।

लेकिन क्या आप जानना नहीं चाहेंगे कि आखिर इतनी बड़े संस्थान के संस्थापक एवं प्रेरणास्त्रोत कौन थे? वे कौन थे जिन्होंने नारी शक्ति को उनका उचित स्थान एवं मान दिया? उन्हें स्वयं से आगे रखा और अपना सर्वस्व विश्व कल्याणार्थ समर्पित कर दिया।

अपार स्‍नेह भरी पुकार ‘ब्रह्मा बाबा’

उन दानवीर, असाधारण एवं अद्भुत व्यक्तित्व के धनी, महान मानव का नाम था दादा लेखराज, जिनके अनुयायी प्यार से उन्हें ‘ब्रह्मा बाबा’ (Brahma Baba) कहते हैं। वैसे, तो ब्रह्मा बाबा की जीवन कहानी को शब्दों में समेटना सूरज को प्रकाश दिखाने जैसा है। इसलिए उनकी कुछ विशेषताओं से हम उन्हें जानने का प्रयास कर रहे हैं।

लखी दादा एक हीरा व्‍यापारी

15 दिसंबर,1884 को सिंध, हैदराबाद (वर्तमान समय पाकिस्तान में) में खूबचंद कृपलानी के घर दादा लेखराज का जन्म हुआ था। उनके पिता स्कूल में प्रधान अध्यापक थे। मां का देहांत उनकी अल्पायु में ही हो गया था। जब वे करीब 20 वर्ष के हुए, तो पिता का साथ भी छूट गया। लेखराज को अपने काका की अनाज़ की दुकान पर काम करना पड़ा। जैसे-जैसे वे बड़े हुए, उन्होंने हीरे परखने एवं ज्वेलरी निर्माण की कला सीखी। समय गुजरने के साथ वह कलकत्ता के नामचीन हीरा व्यापारी व जौहरी बन गए। उनका व्यापार मुंबई तक पंहुच गया। अपने सरल व्यवहार, स्वभाव एवं ईमानदारी के कारण समाज में भी उनका बड़ा मान था। लोग आदर से उन्हें लखी दादा कहते थे।

पत्र लेखन में महारथ

उन्होंने औपचारिक रूप से बहुत शिक्षा नहीं प्राप्त की थी। लेकिन अभ्यास से उन्हें सिंधी भाषा का अच्छा ज्ञान था। वे हिंदी के धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते थे। उन्हें गुरुमुखी में ग्रंथ साहिब की अच्छी समझ थी। अंग्रेजी के समाचार पत्रों को भी अच्छी रीति पढ़ लेते थे। पत्र लेखन में तो विशेष महारथ हासिल थी। अच्छे साहित्य एवं कला की पैनी पहचान रखते थे। उनकी पत्नी का नाम जसोदा था और उनके पांच बच्चे थे।

दादा को हुए थे दिव्य साक्षात्कार

दादा बाल्य काल से ही श्रीनारायण के अनन्य भक्त थे। उनका चित्र सदैव अपने साथ रखते थे। वे एक दिन भी भक्ति और पाठ करने के नियम से नहीं चूकते थे। यात्रा के दौरान भी श्रीमद्भगवदगीता का पाठ अवश्य करते थे। उनका खानपान एवं रहन-सहन सात्विक था। अकसर ही उनके घर पर साधु-संतों का आना लगा रहता था। अपने लौकिक गुरु को तो वे बेहद सम्मान देते थे। एक दिन वह मुंबई में बबुलनाथ के मंदिर के सामने स्थित अपने घर में सत्संग में बैठे थे, तो उन्हें कुछ अजीब आंतरिक अनुभव होने लगे।

वे कमरे में चले गए। शरीर का भान जैसे छूट गया था। वहां उन्हें सबसे पहले ‘विष्णु चतुर्भुज’ का दिव्य साक्षात्कार हुआ। दादा ने सोचा कि शायद गुरु ने ही यह कराया है। लेकिन जब गुरु ने अनभिज्ञता जाहिर कर दी, तो दादा के मन में निश्चय हुआ कि दिव्य दृष्टि एवं दिव्य बुद्धि के दाता केवल परमात्मा हैं और उन एक को ही सच्चा गुरु मानना चाहिए। उन्हें महसूस हुआ कि परमपिता परमात्मा ने ही उन्हें दिव्य चक्षु वरदान रूप में दिया है।

कुछ दिन वाराणसी में

इस तरह, वर्ष 1935-36 से ही दादा लेखराज (Brahma Baba) को परमात्मा द्वारा साक्षात्कार होने लगे। हालांकि, उस समय उन्हें निश्चय नहीं था कि यह सब कौन कर रहा है? वे वाराणसी चले गए और मनन-चिंतन में समय व्यतीत करने लगे। इससे उन्हें नित नए अनुभव एवं कई दिव्य साक्षात्कार हुए। उसी दौरान एक दिन दादा को निराकार ज्योतिर्लिंगम शिव परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। साथ ही कलियुगी सृष्टि के महाविनाश का भी अग्रिम साक्षात्कार हुआ। जबकि तब तक अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी शहरों में एटम एवं हाइड्रोजन बम नहीं फेंके थे। उनका प्रयोगशाला में प्रयोग ही चल रहा था।

परमपिता परमात्मा की ब्रह्मा तन में प्रवेशता

भविष्य में होने वाले महाविनाश को देखकर दादा का मन अपने व्यवसाय से उठ चुका था। उन्होंने अपने पार्टनर को सूचित कर दिया कि अब वे कारोबार नहीं करेंगे। वह उन्हें उनका हिस्सा दे दे। पार्टनर के मन में खोट आ गई, लेकिन दादा ने उन पर विश्वास कर जो मिला, वह लेकर सिंध लौट गए। वह नियमित सत्संगों में मग्न थे, जब अचानक एक दिन कुछ अविस्मरणीय घटित हुआ।

निजानंद स्वरूपं, शिवोहम, शिवोहम

‘जीवन को पलटाने वाली एक अद्भुत जीवन कहानी’ पुस्तक में दादा की बहू बृजइंद्रा उस वृत्तांत को सुनाते हुए कहती हैं- ‘दादा सत्संग से एकदम से उठकर कमरे में चले गए। वह कभी ऐसा नहीं करते थे, इसलिए मैं उनके पीछे गई। कमरे का दरवाजा खुला था और वहां प्रकाश ही प्रकाश था। मैंने दादा के नेत्रों में लाली देखी। चेहरा भी एकदम लाल था। एक आवाज ऊपर से आती सुनाई दी, जैसे कि दादा के मुख से कोई दूसरा बोल रहा हो। आवाज थी- ‘निजानंद स्वरूपं, शिवोहम, शिवोहम। ज्ञान स्वरूपं, शिवोहम, शिवोहम, प्रकाश स्वरूपं, शिवोहम, शिवोहम।‘

सब आश्चर्य में थे कि दादा के साथ ये क्या हो रहा है। स्वयं दादा (Brahma Baba) को भी समझ नहीं आ रहा था। लेकिन आगे चलकर यह रहस्य स्पष्ट हुआ कि परमपिता परमात्मा शिव ने दादा के तन में प्रवेश होकर अपना परिचय दिया था। उन्होंने ही सारे साक्षात्कार कराए थे।

ईश्वरीय विश्वविद्यालय बनने की यात्रा

दैवीय प्रेरणानुसार दादा लेखराज के जीवन में वैराग्य आ गया था। वे घर पर गीता का पाठ करते थे। लोगों को उसका आध्यात्मिक रहस्य बताते थे कि सच्चा गीता ज्ञान श्रीकृष्ण ने नहीं, अपितु निराकारी शिवबाबा ने दिया है। आसपास की महिलाएं उनके सत्संग में आया करती थीं और सभी ओम का उच्चारण किया करते थे। आगे चलकर इस संगठन को दादा ने ‘ओम मंडली’ का नाम दिया। इसे ‘यज्ञ’ भी कहा गया। यह 1937 का वर्ष था। दादा ने ट्रस्ट की स्थापना कर अपनी सारी संपत्ति बहनों एवं माताओं के एक समूह के नाम कर दी।

कराची में 14 वर्ष का तप

वे खुद एक परामर्शदाता की भूमिका में आ गए। इस तरह यह ‘यज्ञ’ स्त्रियों (बहनों एवं माताओं) द्वारा संभाला जाने लगा और एक रूहानी यात्रा का आरंभ हुआ। भारतीय उपमहाद्विप में यह किसी आध्यात्मिक क्रांति सरीखा था, क्योंकि जो भी वहां जाता था, उसे साक्षात्कार होने लगते थे। अनेक अलौकिक अनुभव हुए लोगों को। यह वह दौर था जब भारत-पाकिस्तान बंटवारे को लेकर काफी तनाव चल रहा था। लेकिन दादा (Brahma Baba) उससे न्यारे रहे और मंडली के सदस्यों समेत कराची (पाकिस्तान) में तपस्या में जुट गए। बाहरी दुनिया से उनका संपर्क पूरी तरह खत्म हो चुका था। यह तपस्या 14 वर्ष चली।

ब्रह्मा बाबा का नाम

1948 में दादा लेखराज को परमात्मा द्वारा ब्रह्मा बाबा का नाम दिया गया। 1950 में यज्ञ को पाकिस्तान से भारत में राजस्थान स्थित माउंट आबू स्थानांतरित करना पड़ा और इसका नया नाम पड़ा प्रजापिता ब्रह्मा कुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय। माउंट आबू संस्था का वैश्विक मुख्यालय है। वैसे, 1970 के बाद इसका विदेशों में भी काफी विस्तार हुआ। पहली अंतरराष्ट्रीय शाखा लंदन में खुली, जिसके बाद यूरोप एवं अन्य देशों में भी राजयोग साधना के साथ आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश फैल सका।

कृष्ण के रूप में जन्म लेने का नशा

ब्रह्मा बाबा एक विशेष आत्मा थे जिन्होंने अपने जीवन में श्रेष्ठ एवं अनोखा पार्ट निभाया। वह भाग्यशाली रथ बने जिनके द्वारा परमात्मा ने मनुष्य मात्र को सत्य ज्ञान (मुरली) प्रदान किया, जिससे नई दुनिया की स्थापना होगी। उनके गुण अतुलनीय थे। ईश्वरीय कार्य के लिए उन्होंने धन-संपत्ति, नाम-पहचान सब त्याग दिया। वह हर एक से मीठे वचन व कर्म-व्यवहार द्वारा समीप का संबंध बना लेते थे। बाबा के राजसी व्यक्तित्व का तेज उनके चेहरे से झलकता था।

उन्हें हर समय नई दुनिया में कृष्ण के रूप में जन्म लेने का नशा रहता था। यह नशा अलौकिक था, इसलिए बाबा सदैव अहंकार मुक्त रहते थे। सरल व साधारण जीवनशैली द्वारा बाबा ने सदैव सबको परमात्मा का मार्ग दिखाया, अर्थात् शिव बाबा का संदेश दिया। जो भी बाबा से मिलता, उनके गुणों को अपने हृदय में समा लेता था। विश्व पिता होने के नाते बाबा करुणा व दया भाव से भरपूर थे। बाबा को यज्ञ में अनेक विघ्न का सामना करना पड़ा। लेकिन उन्होंने परमात्मा की श्रीमत पर चलते-चलते सभी विघ्नों को सफलतापूर्वक पार किया।

​लाखों के प्रेरणापुंज

अंतिम दिनों में बाबा अपनी जिम्मेदारियों से भी न्यारे होने लगे। उन्होंने सभी वरिष्ठ दादियों एवं दीदियों में जिम्मेदारियां बांटकर मधुबन (माउंट आबू) में गहन तपस्या में व्यतीत किया। जनवरी 1969 में बाबा अपनी अंतिम कर्मातीत अवस्था को प्राप्त कर इस साकारी दुनिया से न्यारा होकर अव्यक्त हो गए। प्रजापिता ब्रह्मा बाबा के अंतिम बोल थे- ‘निर्विकारी, निरहंकारी, निराकारी बनो’।

आज लाखों मनुष्य आत्माएं ब्रह्मा बाबा के पदचिह्नों को फॉलो कर रही हैं। इस ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त कर, जीवन जीने का आदर्श मार्ग अपना रही हैं। लाखों ब्रह्माकुमारियों व ब्रह्माकुमारों ने ईश्वरीय श्रीमत अनुसार स्वयं और दूसरों के कल्याणार्थ अपना जीवन समर्पित कर रखा है। इस आध्यात्मिक मार्ग पर उनके साथी हैं स्वयं परमात्मा, शिव बाबा जो अविनाशी, रूहानी पिता, परम शिक्षक व सतगुरु हैं।

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