Biography of Mateshwari Jagadamba Saraswati : विश्व जिन्हें आदि देवी के रूप में याद करता है। वेदों में जिन्हें विद्या की देवी कहा गया है, उन्हें ब्रह्मा कुमारीज में प्रजापिता ब्रह्मा की आध्यात्मिक पुत्री माना जाता है। जो जगत अम्बा भी हैं अर्थात सभी मनुष्य आत्माओं की मनोरथ पूर्ण करने वाली मां हैं। इसलिए उनकी इतनी पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि निराकार परमपिता परमात्मा शिव जगदम्बा द्वारा सर्व आत्माओं की मनोकामनाओं को पूर्ण करता है। उनका बचपन का नाम राधे था।
वह प्रजापिता ब्रह्मा का दाहिना हाथ और ब्रह्मा कुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय की पहली मुख्य प्रशासिका थीं। 17 वर्ष की अल्पआयु में आध्यात्मिक ज्ञान की ज्योत जगने के बाद ‘राधे’ न सिर्फ ‘ओम मंडली’ की सदस्य बनीं, बल्कि आगे चलकर ब्रह्मा कुमारीज संस्था की मुख्य प्रशासिका की जिम्मेदारी भी संभाली। इन दिनों मां जगदम्बा सरस्वती की 58वीं पुण्य स्मृति दिवस (58th Punya Smriti Diwas Of Mother Jagdamba) मनायी जा रही है। प्रस्तुत है मां मातेश्वरी के जीवन पर आधारित जानी-मानी पत्रकार अंशु सिंह का यह विस्तृत लेख…
चहुमुंखी प्रतिभा की स्वामिनी
1919 में पंजाब के अमृतसर में एक मध्यवर्गीय परिवार में राधे का जन्म हुआ था। उनकी मां का नाम रोचाव पिता का नाम पोकरदास था, जो सोने-चांदी के व्यापारी थे। बचपन से ही राधे तीक्ष्ण बुद्धि की मालकिन थीं। उन्होंने मुंबई से अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। अंग्रेजी के अलावा वह गुजराती एवं गुरुमुखी भी लिखना-पढ़ना जानती थीं। राधे के जीवन में सब राजी-खुशी चल रहा था। लेकिन अचानक पिता के देहांत के कारण परिवार पर गमों का पहाड़ टूट पड़ा। राधे, मां और बहन के साथ हैदराबाद अपनी नानी के घर चली गईं। हैदराबाद (सिंध) के कुंदनमल मॉडल स्कूल से उन्होंने मैट्रिक तक पढ़ाई की। अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल आईं। पढ़ाई में जितनी तेज थीं, उतनी ही गाने एवं नृत्य करने में निपुण।
अल्पायु में ईश्वरीय सेवा में सपर्मण
शांति के लिए उन्होंने गीता सतसंग में जाना शुरू किया। गीता सतसंग में दादा लेखराज गीता के श्लोकों का सार समझाया करते थे। जब राधे ने देखा कि सतसंग से जुड़ने के बाद मां के जीवन में सुखद परिवर्तन आ रहा है, तो वे भी उनके संग जाने लगीं। ज्ञान (मुरली) सुनते एवं ओम का उच्चारण करते ही राधे का मन मानो नाचने लगता। सभी उन्हें ‘ओम राधे’ कहने लगे। देखते ही देखते फैशन की शौकीन युवा राधे सादगी की प्रतिमूर्ति बन गईं। 17वर्ष की अल्पायु में जब घर में शादी-ब्याह की चर्चा चल रही थी, तब राधे ने अपना जीवन ईश्वरीय सेवा में समर्पित करने का निर्णय लिया।
सत्य एवं आध्यात्मिक ज्ञान
कहते हैं कि विद्या के बिना मानव जीवन निस्सार है। मानव के संपूर्ण विकास में विद्या की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। इससे मनुष्य अनुशासित होता है और उसका एक चरित्र निर्माण होता है। विद्या के बल से वह स्वार्थों से ऊपर उठ पाता है और प्रकृति एवं मानव जाति से प्रेम करना सीखता है। भौतिक विद्या तो स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों में मिल जाती है। लेकिन सत्य एवं आध्यात्मिक ज्ञान सिर्फ परमपिता परमात्मा ही दे सकता है। मम्मा ने इस सत्य को स्वीकार कर लिया था। कहते हैं कि प्रजापिता ब्रह्मा के तन का आधार लेकर जब परमात्मा अवतरित हुए, तो मातेश्वरी (मां सरस्वती) ने उन्हें यथार्थ रूप में पहचान लिया और संपूर्ण ज्ञान को धारण कर जीवन को दिव्य गुणों से संपन्न बनाया।
यज्ञ से हुआ मां सरस्वती का जन्म
इस प्रकार, विश्व की एक अलौकिक मां का धरती पर अवतार हुआ। ब्रह्मा कुमारीज के महासचिव राजयोगी ब्रह्मा कुमार निर्वैर के शब्दों में- ‘परमात्मा को पहचानने के लिए दिव्यबुद्धि व दिव्यदृष्टि की आवश्यकता होती है। उसी तरह, संसार को पुन: सुसंस्कारित करने के लिए ब्रह्मा की मुखवंशावली बेटी सरस्वती को पहचानने के लिए भी दिव्यबुद्धि की आवश्यकता होती है।‘ यज्ञमाता जगदम्बा सरस्वती पुस्तक के अनुसार, जिस प्रकार महाभारत में वर्णित द्रौपदी का जन्म यज्ञ से हुआ था। उसी तरह, विद्या की देवी सरस्वती अर्थात् मां जगदम्बा का जन्म भी यज्ञ से हुआ माना जाता है। यानी ज्ञान द्वारा उनका दूसरा जन्म होता है। भाव यह है कि शारीरिक रूप से तो वह पहले से थीं, परंतु ज्ञान द्वारा उनका मन, वचन और कर्म निर्मल एवं कमल पुष्प समान बने।
एक भरोसा, एक विश्वास था मंत्र
राधे के समर्पण, त्याग एवं अथक सेवा के कारण उन्हें यज्ञ में ‘मातेश्वरी’ कहा जाने लगा। उनके व्यक्तित्व में एक अलग ही रुहानी आकर्षण था। आंखों से दूसरों के लिए सिर्फ करुणा एवं दुआ भाव ही झलकता था। उनके शक्तिशाली, प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं रहमदिल संस्कार के कारण उन्हें हर कोई बेहद सम्मान की दृष्टि से देखता था। मम्मा की बुद्धि काफी तीव्र थी। बाबा की मुरली सुनने के पश्चात वह उसका मंथन करतीं और फिर सरलता से उसकी व्याख्या। ज्ञान मंथन करना, धारणाओं पर चलना, आत्मनिरीक्षण करना, आंतरिक खुशी की अनुभूति करना, मौन रहना एवं सिर्फ परमात्मा से सर्व संबंध रखना, जैसी विशेषताएं मम्मा ने यज्ञ में आते ही धारण कर ली थीं। सभी उनसे स्नेह करते थे। मम्मा का सिद्धांत था-‘एक भरोसा, एक विश्वास’ और ‘न किसी से दुःख लो, न दो।
एक आदर्श शिष्या
वास्तव में वे शिवबाबा की आदर्श शिष्या थीं। प्रातः दो बजे अमृत वेले योग के लिए उठ जाती थीं। उन्होंने न सिर्फ स्वयं कोकर्मेंद्रियजीत व स्वराज्याधिकारी बनाया, बल्कि अन्य आत्माओं का भीआध्यात्मिक उत्थान कर मनुष्य से देवता बनने की कला सिखाई। मम्मा जब शांतचित्त (साइलेंस में) होकर रहतीं, तो उसका भी एक अलग प्रभाव होता था। उनकी रूहानी दृष्टि से ही अनेकों के हृदय परिवर्तित हो जाते थे। उनमें स्वत: ही पांच विकार छोड़ने की प्रेरणा जाग्रत हो जाती थी और वे पूर्ण सात्विक जीवनशैली (मांस-मछली,लहसुन-प्याज,सिगरेट-नशा आदि का त्याग) अपना लेते थे।
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शक्तियों से परिपूर्ण ‘मातेश्वरी’
1950 में ‘ओम मंडली’ के माउंट आबू आने के बाद से मम्मा की यज्ञ में भूमिका और भी बढ़ गई थी, क्योंकि अब संपूर्ण भारत में सेवाओं का विस्तार हो रहा था। मम्मा ने स्वयं सेवा पर जाकर अनेक सेवाकेंद्रों की स्थापना की। वह यज्ञ की अर्थ व्यवस्थापकथीं, इसलिए मितव्यवता एवं उपयोगिता का खासतौर पर संतुलन रखती थीं। सिर्फ आवश्यकतानुसार ही धन का उपयोग करती थीं। अगर गुणों की बात करें, तो मम्माअनेक गुणों से सम्पन्न थीं। जैसा कि भक्तगण, देवियों का पूजन करते हैं, मम्मा यथार्थ रूप से उन नौशक्तियों से परिपूर्ण थीं, जिनका उपयोग उन्होंनेअन्य आत्माओं के उद्धार हेतु किया। वे ज्ञान, संपन्नता, शक्ति, निर्भयता,पवित्रता एवं संतुष्टता की प्रतिमूर्ति थीं।
यह कहानी है श्रेष्ठ प्रमाण
उनके जीवन की एक कहानी मम्मा के दृढ़ निश्चय एवं निश्चय बुद्धि होने का प्रमाण देती है। हुआ यूं था कि एक बार जब ओम मंडली के विरुद्ध न्यायालय में केस चल रहा था, तब मम्माने अपनी गवाही से न्यायाधीश को मौन कर दिया। उन्होंने बेहद स्पष्टता से बताया कि किस प्रकार निराकार परमात्मा ने दादा लेखराज को माध्यम बनाया है और उनकेद्वारा ज्ञान दे रहे हैं। साथ ही यह भी समझाया कि कैसे परमात्मा ही आकर मनुष्य आत्माओं को पवित्र रहने की (मन,वचन,कर्म से)श्रीमत देते हैं। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि वह अपने जीवन की दिशा एवं उद्देश्य स्वयं निर्धारित कर सके। मम्मा की इन दलीलों के बादओममंडली ने केस जीत लिया। वह जिस भी बात पर दृढ़ निश्चय कर लेती थीं, तो उनको उनके निर्णय से हिलाया नहीं जा सकता था। जो बाबा ने कहा, उसी बात की दृढ़ता से मम्मा सभी से सेवा कराती थीं। वह जितनी दृढ़, उतनी निश्चयबुद्धि थीं।
किया अनेकों का जीवन परिवर्तन
मम्मा को कोई वाद-विवाद में परास्त नहीं कर सकता था। उनकी भाषण करने की कला अद्भुत थी। वह तर्कसंगत विचार रखा करती थीं। उनके जवाब ऐसे होते थे, जैसे कि अर्जुन के तीर। सीधे निशाने पर ही लगते थे। बावजूद इसके, उनमें अहंकार का अंश मात्र भी नहीं था और न वह क्रोध करती थीं। वे कहती थीं कि काम, क्रोध, अहंकार आदि नर्क के द्वार हैं। इसलिए उनसे बचना चाहिए। एक बार मातेश्वरी पंजाब में थीं, जब कुछ लोगों ने सेवा केंद्र पर हमलाकर दिया और उनसे मिलने की जिद करने लगे।ये लोग ब्रह्मा कुमारी के ज्ञान का विरोध करने आए थे और उस सेंटर को बंद करवाना चाहते थे।
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मना करने के बाद भी वे आखिरकार मम्मा की तलाश करते हुए उनके कमरे तक पहुंच गए। वह कमरे में तपस्या में बैठी थीं। लोगों ने उनकी दिव्यमूर्त देखी और उनका क्रोध एकदम से शांत हो गया। सभी कुछ बोले बिना हीशांत होकर बैठ गए। यह थी यज्ञ माता (सरस्वती जगदम्बा) की तपस्याकी शक्ति।
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उनके शब्दों में जादुई प्रभाव था। मम्मा के वचन प्रेरणादायक व जीवन परिवर्तक थे। 28 वर्ष के निरंतर ज्ञान मंथन, तीव्र पुरुषार्थ एवं अथक सेवा के बाद, 24 जून 1965 को मातेश्वरी ने शरीर त्याग दिया और संपूर्ण बन गईं। ब्रह्मा कुमारी संस्थान में आज भीप्रेरणा के लिए मातेश्वरी जगत अम्बा सरस्वती का जीवन, उनके गुण, वचन व कर्म याद किए जाते हैं।
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