BJP: पटना और फिर बेंगलुरु में हुई बैठकों से एक बात तो साफ़ होती है कि विपक्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से पहली बार वर्तमान नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए को चुनौती देने को लेकर गंभीर हैं| क्या भाजपा इन बैठकों को लेकर चिंतित है, यह एक बड़ा सवाल है जो तुरंत दिमाग में कौंधता है| या फिर भाजपा अपनी अविजेयता को लेकर इतनी निश्चिन्त है कि वह इसे एक मामूली चुनौती मान कर ही देख रही है? उसके खलीते में ऐसा कुछ है जिसका विपक्ष को कोई अंदाज नहीं और ऐन मौके पर मोदी कोई जादुई खरगोश निकाल कर मेज पर रख देंगे?
मोदी का करिश्मा या ठोस समीकरण?
वास्तव में, विपक्षी एकता कितनी प्रभावी होगी यह कई कारकों पर निर्भर करता है| क्या अगला लोकसभा चुनाव ऐसा होगा जिसमें नरेंद्र मोदी का करिश्मा काम करेगा; उनके व्यक्तित्व, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मिले- जुले उनके दर्शन ने गहराई तक भारतीय मन पर कब्जा कर लिया है, या फिर यह चुनाव शुद्ध रूप से उन समीकरणों पर टिका रहेगा जो स्थानीय स्तर पर अलग-अलग तरीके से उभर कर सामने आयेंगे? उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश को लें| मोदी युग में उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता के कई प्रयास भयंकर रूप से असफल रहे हैं क्योंकि पार्टी हिंदुत्व के ऊंची लहर पर सवार रही है| जातियों से परे जाकर बड़ी तादाद में हिंदू मतदाता इसके प्रति आकर्षित होते रहे हैं।
तो क्या 2024 के लोकसभा चुनावों में विपक्षी एकता काम करेगी? 2019 की शुरुआत में, लोकसभा चुनाव नजदीक आने के समय, BJP थोड़ी कमजोर दिख रही थी। ऐसे में विपक्षी एकता महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती थी, लेकिन, मतदान शुरू होने से ठीक एक महीने पहले भारत और पाकिस्तान के बीच एक संघर्ष ने चुनावी मुकाबले की तासीर ही बदल कर रख दी| चुनावी माहौल में अचानक राष्ट्रवाद का रंग घुल गया और भारतीय मतदाता के ह्रदय में राष्ट्रवाद की प्रबल लहर दौड़ गई। क्या सरकार में रहते हुए भाजपा फिर से ऐसे कोई कदम उठा सकती है जिसमें राष्ट्रवाद और धर्म का मिला-जुला मिश्रण हो, और जो एकबारगी जनता को उसकी तरफ मोड़ दे? यह असंभव है, ऐसा नहीं कहा जा सकता| यह संभावना विपक्ष को जरूरी चिंतित रखेगी|
अगले लोकसभा चुनाव में एक साल से भी कम समय बचा है| बीजेपी थोड़ी मुश्किल में तो दिख रही है। मूल्य वृद्धि जैसे महत्वपूर्ण आर्थिक मुद्दे सामने हैं, और मोदी एवं हिंदुत्व का दोहरा असर भी कर्नाटक जैसे महत्वपूर्ण चुनावों में विफल रहा है। इससे ही स्पष्ट होता है कि BJP विपक्षी एकता को तोड़ने के लिए इतनी बेचैन क्यों है, जैसा कि हमने हाल ही में महाराष्ट्र में देखा। यह बेचैनी यही दर्शाती है कि यदि विपक्ष अपने तमाम झगड़ों झमेलों के बावजूद एक हो जाए, तो भाजपा के लिए मुश्किल होगी| पर इसका एक सकारात्मक पहलू है जो भाजपा को अपनी ताकत का अंदाजा भी दिलाता है| वह यह कि उसे हारने के लिए समूची विपक्ष को एक होना पड़ा| साम, दाम, दंड, भेद की सारी नीतियाँ अपनानी पडीं|
यदि यही राजनीतिक माहौल बना रहा, तो 2024 का चुनाव शुद्ध रूप से समीकरण पर आधारित हो सकता है, जहां BJP को एकजुट विपक्ष से काफी सतर्क रहना पड़ेगा। बेशक, अगर आने वाले कुछ महीनों में एक और घटना होती है जो राजनीतिक माहौल को काफी हद तक बदल देती है और लोकसभा चुनाव एक करिश्माई नेतृत्व तक सीमित हो जाते हैं, तो चुनावी परिदृश्य काफी हद तक बदल सकता हैं|
विपक्षी जुटान कोई नई बात नहीं
याद रखना जरूरी है कि विपक्षी एकता कोई नई बात नहीं है। इसका पहला प्रयास 1960 के दशक के अंत में ही किया गया था, जब आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस का चुनावी वर्चस्व कम होना शुरू हो गया था। इस प्रयास को महत्वपूर्ण सफलता मिली क्योंकि एकजुट विपक्ष लोकसभा में कांग्रेस के बहुमत को काफी हद तक कम करने और उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में सरकारें बनाने में सक्षम हुआ। इसके अलावा, इसने बाद में 1977 के चुनावों के लिए मंच तैयार किया, क्योंकि आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी को भारी शिकस्त देने के लिए पूरा विपक्ष एकजुट हो गया था।
भारतीय राजनीति के उस काल में कांग्रेस पूरी तरह से अपराजेय थी। विपक्षी पार्टियाँ चुनिंदा मुकाबलों में कांग्रेस को हराने में कामयाब रही थीं, लेकिन पार्टी को भारत के राजनीतिक ध्रुव के रूप में स्थापित करना एक बिलकुल अलग बात थी। संयुक्त विपक्षी सरकारें अक्सर अराजकता का शिकार हो जाती हैं| यहां तक कि आपातकाल के बाद हुए ऐतिहासिक चुनाव में बनी मोरारजी देसाई सरकार भी केवल दो साल तक चली, जिसमें प्रधान मंत्री को उनके ही पूर्व डिप्टी ने गिरा दिया था।
हालाँकि, लंबे समय में, विपक्षी एकता के ये प्रयोग कांग्रेस के अजेयता के बुलबुले में सुई चुभोने का काम करते रहे और ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का ये हमेशा हिस्सा बने रहेंगे धीरे धीरे 1990 के दशक के मध्य तक कांग्रेस पार्टी खस्ताहाल हो गई। एक ऐसी पार्टी जो भारत की भारत की सबसे बड़ी पार्टी थी| पर क्या विपक्ष का एजेंडा कांग्रेस के एजेंडे से बिलकुल भिन्न था, या फिर उन्होंने उसी एजेंडे को बेहतर तरीके से लागू करने की वादे के आधार पर अपनी जगह बनाई? भाजपा और अभी एकजुट हो रहे विपक्ष के बीच यही एक बड़ा फर्क है| उन्हें सिर्फ एक अलग दल के विरोध में नहीं, एक बिलकुल अलग विचारधारा के खिलाफ लड़ना है| एक ऐसी विचारधारा जिसे वह भारत का शत्रु मानती है|
ऐन वक्त पर पासा पलटने में माहिर हैं मोदी
मोदी के शासनकाल में BJP भारत की सबसे शक्तिशाली पार्टी है और एक मजबूत केंद्र सरकार चलाती है| इसके राजनीतिक तौर तरीकों पर लगातार विवाद होते रहते हैं। पर राज्य स्तर पर देखा जाए तो वास्तव मेंभाजपा को इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की तुलना में कहीं अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, भगवा पार्टी बड़े राज्यों में चुनाव जीतने में कम सक्षम है। परिणामस्वरूप, विपक्षी एकता के प्रयासों में वही पैटर्न देखने को मिला जो उन्होंने इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस के खिलाफ दिखाया था—सिवाय इसके कि वे राज्य स्तर पर अधिक सफल रहे हैं। उदाहरण के लिए, बिहार में पिछले एक दशक में विपक्षी गठबंधन ने अक्सर मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को हराया है और साथ ही चुनाव के बाद गठबंधन का उपयोग करके इसे सत्ता से बाहर रखा है।हालाँकि इन प्रयासों को हमेशा इस तथ्य का सामना करना पड़ा कि विपक्ष केंद्र में एक शक्तिशाली पार्टी से लड़ने की कोशिश कर रहा है जिसके पास काफी अधिक संसाधन हैं|
गौरतलब है कि ने इंदिरा गांधी एकजुट विपक्ष के खिलाफ भी महत्वपूर्ण जीत हासिल की। 1971 में कांग्रेस ने गरीबी कम करने के मुद्दे पर अभियान चलाकर चुनावों में जीत हासिल की। आज मोदी की तरह इंदिरा गांधी ने भी यही कहा था कि विपक्ष सिद्धांत पर नहीं बल्कि उन्हें हटाने के एजेंडे पर एक साथ आया है। आज भाजपा भी विपक्षी गठबंधन को व्यक्तिगत स्वार्थ पर आधारित और सिर्फ मोदी विरोधी एजेंडे पर चलने वाले महाभ्रष्ट और ठग गठबंधन बताने का कोई भी अवसर नहीं चूकती| मोदी वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय होते जा रहे हैं| ईमानदारी से देखा जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी की टक्कर का नेता मौजूद नहीं, भले ही एक बड़ा वर्ग उनसे नफरत करता हो| कांग्रेस इसी कोशिश में है कि समूचा विपक्ष उसकी छतरी के नीचे आ जाए, और राहुल गांधी को अपना नेता मान ले| इस बात पर आगे चल कर बहुत विवाद होने की संभावना है| कांग्रेस ने यह भी कह दिया कि नए गठबंधन का नामकरण भी राहुल गांधी के क्रिएटिव दिमाग की उपज है| विपक्ष क्या एक पराजित और संसद से निष्काषित नेता का वचर्स्व स्वीकार करेगा, या कई और नेता अपनी श्रेष्ठता साबित करने की कोशिश करेंगे, यह आने वाले दिनों में देखने वाली बात होगी|
भाजपा और नरेन्द्र मोदी की कार्य पद्धति को देखते हुए ऐसा ही लगता है कि मौका आते ही वह ऐसा कुछ कर सकती है कि सारे विपक्षी समीकरण धरे के धरे रह जायेंगे और एक नई लहर मोदी के पक्ष में तैयार हो जायेगी| आपने गौर किया होगा कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का हवाला देते हुए मोदी इन दिनों स्थिर सरकार की बात कर रहे हैं| स्थिर सरकार से उनका अर्थ है राजनीतिक और आर्थिक रूप से दीर्घकालिक कार्यक्रमों को लागू करने में सक्षम सरकार| स्थिरता भाजपा के लिए एक बड़ा मुद्दा होगी| दस सालों तक शासन करने के बाद जब भाजपा इसे दोहराएगी तो जनता को इस तर्क में दम भी दिखेगा|
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