Didi Manmohini Biography: अनथक सेवा भाव से जगायी अध्‍यात्मिकता की ज्‍योत  

Didi Manmohini Biography : प्रजापिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय की अतिरिक्‍त मुख्‍य प्रशासिका दीदी मनमोहिनी का जीवन एक प्रेरक पुस्‍तक की तरह है।

Didi Manmohini Biography: दीदी मनमोहिनी प्रजापिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय (Brahma Kumaris) की अतिरिक्त मुख्य प्रशासिका थीं। उन्होंने प्रकाशमणि दादी के साथ मिलकर विश्व में आध्यात्मिकता की ज्योत जगायी। उनके अंदर ईश्वर को पाने की अत्यंत उत्कंठा थी और आखिरकार 1936-37  में ‘ओम मंडली’ में जाकर उनकी यह खोज समाप्त हुई। दीदी को उनका भगवान (गीता का भगवान) और जीवन का लक्ष्य मिल गया। इसके बाद उन्होंने अथक होकर सेवा की और अपना तन-मन-धन पूर्ण रूप से जन जागृति में लगा दिया।

वे कहती थीं कि परमात्मा शिव की स्मृति में रहने से तन एवं मन के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। उनका कहना था कि अगर हम किसी की कमजोरी मन में रखेंगे, तो वो हमारी कमजोरी बन जाएगी। फिर हम किसी की कमजोरी देखे ही क्यों? पढ़ें दीदी मनमोहिनी जी के जीवन पर बीके अंशु जी का यह आलेख।

एक वीरांगना थीं वे

दीदी मनमोहिनी के अंदर साहस कूट-कूट कर भरा था। वे इतनी दृढ़ निश्चयी थीं कि उनके विश्वास को डिगाना नामुमिकन था। इसलिए तत्कालीन समाज में वह अन्य स्त्रियों के लिए एक मिसाल बनीं। आज भारतवासी झांसी की रानी और दूसरी वीरांगनाओं की वीरगाथा सुनाते हैं। दीदी मनमोहिनी उनसे कम नहीं थीं। जिस दौर में स्त्रियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी। वे खुद से कोई निर्णय नहीं ले सकती थीं। उस समय दीदी ने नीडर होकर अपने जीवन के फैसले लिए। वह कभी भी बहस में समय नहीं गंवाती थीं।

गुणमूर्त बनकर देखे सबके गुण

उनका सदैव एक विशेष आत्मा का आचरण रहा। गुणमूर्त बनकर सभी के गुण देखा करती थीं। उनका कहना था किविशेष आत्मा बन, विशेषता को ही देखो और विशेषता का ही वर्णन करो। दीदी गुणों का खजाना थीं। 1937 से लेकर 1983 तक वह कभी बाबा की मुरली क्लास में अनुपस्थित नहीं रहीं। 72 वर्ष की आयु में भी वह एक आज्ञाकारी छात्र बनी रहीं। सुबह चार बजे योग के लिए उठने से लेकर हर ईश्वरीय मर्यादा का अंतिम घड़ी तक पालन करती रहीं। वे बहुत कम सोती थीं। अपना ज्यादा समय योग में व्यतीत करती थीं।

व्‍यक्तित्‍व में चुंबकीय आकर्षण

पत्र लेखन में उनकी खास रुचि थी। दीदी अक्सर कहा करती थीं कि अब घर वापस जाना है। उनके आत्म निश्चय का अभ्यास इतना गहरा था कि आखिरी समय में अस्पताल में रहने के बावजूद डॉक्टरों को यही कहा करती थीं कि तन को कुछ भी हो जाए, लेकिन मन ठीक है। दीदी अपने कर्म से कहीं के भी वातावरण को आध्यात्मिक बना देती थीं। उनकी योगदृष्टि बहुत शक्तिशाली और शिक्षा प्रभावशाली थी। वे किसी को भी स्नेह से अपना बना लेती थीं। उनके व्यक्तित्व में एक चुंबकीय आकर्षण था।

सिंध के समृद्ध परिवार में हुआ था जन्म

दीदी मनमोहिनी का जन्म 1915 में सिंध, हैदराबाद (वर्तमान पाकिस्तान में) के एक समृद्ध परिवार में हुआ था। उनके दादा आशाराम अपने समुदाय के प्रमुख थे। हैदराबाद में उनकी एक बड़ी कंपनी थी, जो आयात-निर्यात में संलग्न थी। कई देशों में उनका व्यापार था। शहर में एक बड़ी दुकान भी थी। दीदी की मां का नाम रुकमणि था, जिन्हें यज्ञ में बाबा ने ‘क्वीन मदर’ अर्थात् ‘राज माता’ का नाम दिया था। उनकी एक बहन शील(दादी)और दोभाई थे। दीदी के लौकिक परिवारका दादा लेखराज के परिवार से निकट का संबंध था।उनका विवाह भी एक समृद्ध परिवार में हुआ था। पति प्रकाशमणि दादी के कजिन और एक बड़े कारोबारी थे।

गोपी और कोई नहीं, मैं ही हूं

दीदी की मां शुरू से ही दादा के सतसंग में जाया करती थीं। दीदी को भी सतसंग में जाना पसंद था। गीता एवं भागवद प्रिय थे। हां, उन्हें यह नहीं मालूम था कि उसे पढ़ने से क्या लाभ मिलेगा। लेकिन भागवद की गोपियां आकर्षित करती थीं। दीदी ने बताया था, ‘मुझे अंदर से लगता था कि वह गोपी और कोई नहीं, मैं ही हूं। मैं श्रीकृष्ण की गोपियों के साथ दिव्य कीड़ा के बारे में पढ़ती थी, तो आंखों से आंसू निकल आते थे। इतनी प्रिय थीं गोपियां। फिर जब ब्रह्मा बाबा के गीता सतसंग से जुड़ना हुआ और उनमें श्रीकृष्ण के साक्षात्कार हुए, तो एक निश्चय सा हो गया कि उनकी गोपी मैं ही हूं। इस प्रकार आध्यात्मिकता मेरे जीने का रास्ता बन गया।‘

परिवार का विरोध नहीं डिगा पाया मकसद से

बताते हैं कि दादा लेखराज (प्रजापिता ब्रह्मा) के सतसंग में पवित्रता पर विशेष जोर दिया जाता था। इसी कारण दीदी मनमोहिनी को अपने ससुरवालों के काफी विरोध का सामना करना पड़ा। उनके ऊपर एक पाबंदी सी लगा दी गई थी। मानसिक के साथ शारीरिक प्रताड़ना तक झेलनी पड़ी उन्हें। वे वापस अपने मायके चलीं गईं। लेकिन कुछ समय के बाद वहां भी लौकिक दादा एवं अन्य सदस्यों के विरोध का सामना करना पड़ा। दादी की मां बेटी की व्यथा से आहत थीं और सबने फैसला कर लिया कि वे घर छोड़कर दादा लेखराज के आश्रम में चली जाएंगी। दादा लेखराज ने दीदी मनमोहिनी, उनकी बहन एवं मां को हैदराबाद में ही अलग से एक फ्लैट दिला दिया।

दृढ़ निश्‍चय की धनी

लेकिन जब दादा लेखराज वहां से कराची चले गए, तो दीदी भी अपनी मां और बहन सहित वहां चली गईं। वे सभी प्रेम निवास में रहने लगे। दीदी ने प्रतिज्ञा की कि चाहे कुछ भी हो। मुसीबतों एवं दुखों के कितने ही पहाड़ क्यों न टूट पड़ें, पूरे विश्व के ही विरोध का क्यों न सामना करना पड़े, वे सब कुछ सहन करेंगी। यहां तक कि अगर खुद की जान भी चली जाए, तो उसकी परवाह किए बगैर आध्यात्मिक रास्ते का त्याग नहीं करेंगी। प्रजापिता ब्रह्मा को अपना आदर्श मानती रहेंगी। क्योंकि कहीं न कहीं दीदी मनमोहिनी का निश्चय पक्का हो गया था कि गीता का ज्ञान कोई और नहीं, परमपिता परमात्मा शिव ब्रह्मा बाबा के मुख द्वारा देते हैं।

संस्था के लिए माउंट आबू का चयन

1937 में प्रजापिता ब्रह्मा ने ईश्वरीय विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद कुमारियों एवं माताओं के जिस ट्रस्ट को अपनी सारी चल-अचल संपत्ति सौंप दी थी, दीदी मनमोहिनी उस ट्रस्ट का हिस्सा थीं। आगे चलकर उन्होंने संस्था की पहली मुख्य प्रशासिका जगदम्बा सरस्वती (मम्मा) की सहयोगी बनकर कार्य किया। वे दीदी मनमोहिनी ही थीं, जिन्हें बंटवारे के बाद ब्रह्मा बाबा ने भारत में स्थान चयन करने के लिए भेजा था। तब दीदी ने यज्ञ के कार्य के लिए राजस्थान के माउंट आबू को चुना था। यहां आने के बाद उन्होंने देश भर का भ्रमण किया और लोगों को ईश्वरीय संदेश दिया। वृद्धावस्था के बावजूद उन्होंने आबू से असम, कश्मीर से कन्याकुमारी, कोलकाता से कच्छ तक की यात्रा की।

विदेश में सेवा

वे विदेश भी गईं। उन्होंने रात-दिन एक मां की तरह सबकी पालना की। उन पर अपना दुलार लुटाया। दीदी मनमोहिनी ने 1951 से 1952 तक संस्था के प्रशासनिक कार्यों को बड़ी गंभीरता से निभाया। 1969 में ब्रह्मा बाबा के शरीर त्यागने के पश्चात उन्होंने अतिरिक्त मुख्य प्रशासिका के रूप में दादी प्रकाशमणि का बखूबी साथ दिया। दोनों ने करीब 14 वर्ष साथ-साथ संस्था की जिम्मेदारी संभाली। आपस में कभी कोई विवाद नहीं रहा। न कभी एक-दूसरे की आलोचना की। वे कहती थीं कि बेशक दोनों के शरीर अलग हैं, लेकिन आत्मा एक है। उनकी एकजुटता एवं प्यार देखकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। यह दादी-दीदी की जोड़ी के अथक परिश्रम का ही परिणाम था कि 1983 आते-आते संस्था के विश्व भर में 1150 सेवा एवं उप सेवा केंद्र खुल चुके थे।

दीदी-दादी का कुशल प्रशासन

ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय में देश-विदेश से हजारों अनुयायियों का आना होता था। उन सभी के रहने, भोजन आदि की व्यवस्था देखना आसान नहीं था। दीदी छोटे से छोटे कार्यों पर विशेष ध्यान देती थीं। हर सुबह मधुबन का चक्कर लगाकर लोगों को आवश्यक दिशा- निर्दश दिया करती थीं। रसोई तक में जाकर वहां के इंतजाम देखा करती थीं। आगंतुकों को सुख-सुविधा देने तथा उन्हें ज्ञान की गहराई में ले जाने के साथ-साथ अपने मातृत्व वात्सलय से सींचने में दिन-रात एक कर दिया करती थीं।

मंथन करने से अधिक समाधान जरूरी

दीदी की विशेषता थी कि वे समस्या पर मंथन करने से अधिक समाधान निकालने में विश्वास करती थीं। इससे लोग प्रेरित होकर अपना कार्य किया करते थे। यहां तक कि सरकारी एवं निजी संस्थानों के अधिकारी भी संस्था के कुशल प्रशासनिक कार्यों को देख हतप्रभ हो जाते थे। वे दीदी एवं दादी से कहा करते थे कि यहां जिस तरह से लोग शांति, प्रेम एवं सेवा भाव से सारे कार्य कर लेते हैं, उससे उन्हें काफी कुछ सीखने को मिलता है।

कोई औऱ भी सीखना चाहे, तो वह संस्था में आ सकता है। 1983 की बात है, मधुबन में एक बड़ा सम्मेलन हुआ था। देश-विदेश से तीन हजार से अधिक लोग पहुंचे थे और यहां की व्यवस्था देख हैरान रह गए थे। अपनी कुशाग्र बुद्धि, लोगों को परखने की शक्ति, प्रेम एवं अथक सेवा के कारण दीदी ने स्वयं को एक कुशल प्रशासिका के रूप में स्थापित किया था।

लोगों के जीवन में लाया सकारात्मक परिवर्तन

दीदी राजयोग की वरिष्ठ शिक्षिका थीं। दूसरों को ज्ञान सुनाने की उनकी कला अनूठी थी। उनके अंदर सहज रीति से लोगों के जीवन में परिवर्तन लाने की शक्ति थी। जो भी दीदी के संपर्क में आते थे, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे। दीदी लोगों को तोहफे के रूप में एक आध्यात्मिक डायरी दिया करती थीं, जिसके प्रत्येक पन्ने पर ज्ञान से जुड़ी तस्वीरों के साथ कुछ उत्कृष्ट कथन (स्लोगन) होते थे।

दीदी उन्हें बताती थीं कि वह शिवबाबा की शिक्षाएं हैं। उन्हें रोज पढ़ें और अपने जीवन में धारण करें। रात में सोने से पहले अपने मन के विचारों को लिखें। वे पाएंगे कि कैसे धीरे-धीरे उनके जीवन में परिवर्तन आ रहा है। लोग दीदी की बात मानकर वैसा ही करते और अपने जीवन में परिवर्तन का अनुभव करते। इस प्रकार, जैसे एक चिकित्सक अपने मरीज की नब्ज को देखकर उसकी बीमारी का पता लगा लेता है। उसी प्रकार, दीदी छोटी सी बातचीत में लोगों के चेहरे के भाव पढ़कर एवं उनका व्यवहार देखकर उनकी समस्या का पता लगा लेती थीं। उनके आध्यात्मिक सुझावों एवं समाधान से काफी लोगों को फायदा हुआ। उनके जीने का तरीका एवं सोचने का नजरिया बदल गया।

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