
International Women’s Day: अगर आप एक बेटी के पिता हैं तो ज़ी 5 पर ‘मिसेज’ नाम से आई एक मूवी देख डालिए। मूवी देखकर आपको पता चलेगा कि आप बिटिया को बेटा कहकर कौन सी गलती कर रहे हैं। दरअसल, आपको लग सकता है कि बिटिया को बेटा कहकर आप उसे शक्तिशाली बना रहे हैं पर यह गहरी पैठ बना लेने वाली पितृसत्तात्मक सोच का प्रदर्शन हो सकता है। यह बदलाव के प्रति तीव्र प्रतिरोध को बताने वाला है। हम जानते हैं कि बेटा को लेकर भारतीय समाज में कैसी सोच है और जब बेटियों को बेटा कह देते हैं तो उसे कितना कमजोर कर रहे होते हैं। अब किसी के अस्तित्व को समाप्त कर देने में उसकी पहचान खत्म करने का बड़ा योगदान है, इससे आप जरूर इंकार नहीं करेंगे।
मिसेज मूवी देखकर आप समझ पाएंगे कि अपनी बेटियों को डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर या और कुछ भी बनाने से पहले बेटी बनाना जरूरी है। मैं 2 बेटियों का पिता हूं, आज ये मूवी देखने के बाद मुझे अपनी सबसे बड़ी गलती का एहसास हुआ। वो गलती ऐसी है जो शायद मैं अकेला नहीं कर रहा बल्कि मेरे जैसे कितने ही बेटियों के पिता कर रहे हैं। जैसे मैं ये मन ही मन सोचता हूं या कामना करता हूं कि मेरी बेटियां बड़ी होकर ये बनेंगी, वो बनेंगी, ये करेंगी, वो करेंगी लेकिन मैं गलत हूं। मैंने उनके बारे में ये सब तो सोच लिया लेकिन ये कभी नहीं सोचा कि मैंने उन्हें कितनी बार बेटी कहकर पुकारा है।
प्यार आए तो ‘मेरा बेटा है’, गुस्सा आए तो ‘बेटा क्या कर दिया’, सीख देनी हो तो ‘बेटा ऐसे नहीं करते’ और डांट लगानी हो तो ‘बेटा देख लेना अगर आज के बाद किया तो’। मैं बीते वक्त में जाकर देखता हूं तो मैंने कभी इन मौकों पर उसे बेटी नहीं कहा। आप कहेंगे तो इसमें गलती की कौन सी बात हो गई लेकिन ऐसा करना गलती है और ये आज मूवी देखने के बाद मुझे समझ में आया।
क्या हमने कभी रोटी को रोटा कहा है, नहीं ना तो फिर बेटी को बेटा आखिर क्यों कहते हैं। क्या बेटी की अपने आप में कोई पहचान नहीं या फिर बेटी की बराबरी का अहसास बेटा कहकर ही दिलाया जा सकता है। हम बेटा-बेटा कहकर उसे बराबरी का हक देने का दंभ भरते हैं लेकिन फिर क्या करते हैं। ‘बेटा, अपने भाई को एक गिलास पानी दे दे जरा’। ‘बेटा, मेरा चश्मा तो उठाना’। ‘बेटा, एक कप चाय बना दे जरा।’
क्या हम अपने बेटे से ये कहने की हिम्मत कर पाते हैं। यकीन से कह सकता हूं कि ऐसे सिर्फ चंद या गिने चुने लोग ही होंगे जो अपने बेटों से इस तरह के काम के लिए कहते होंगे। इसके बाद क्या होता है, जब उनका ये बेटा किसी की बेटी को ब्याह कर घर में बहू बनाकर लाता है तो एक बार फिर वो बेटी, बहू का अवतार धारण कर लेती है और बहू को फिर बेटा बना दिया जाता है और ये बेटा करता क्या है। अपने पति के घर में मशीन बनकर रह जाता है। इस मूवी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।
फिल्म की एक्ट्रेस जो शादी से पहले डांस ट्रूप चलाती थी, एक अच्छी डांसर थी। एक सफल डॉक्टर के साथ उसकी शादी होती है लेकिन ससुराल आने के बाद डांसर रही वह लड़की अपने ससुराल वालों के इशारों पर नाचती-फिरती है। खाने से लेकर सोने तक उनकी हर जरूरत का ध्यान रखती है। एक दिन आखिर में तंग आकर पति का घर छोड़ आती है। घर लौटने के बाद उस बेटा को बड़ी बड़ी नसीहतें मिलती हैं। अब तक सब कुछ सिर झुकाकर स्वीकारने वाली वह बेटी सारी नसीहतों, उपदेश को सिरे से नकारकर अपने अस्तित्व की खोज में निकल पड़ती है।
सीन बदलता है और वह बिटिया अपने डांस स्टेज पर होती है। अपने जुनून को जी रही होती है। इसके बाद दूसरे सीन में उसका पहला पति, दूसरी शादी कर लेता है। वह भी पहली पत्नी की तरह उनकी सेवा में जुटी रहती है।
पति दोबारा शादी कर लेता है और ऐसा लगता है जैसे उसकी जिंदगी में कुछ बदला ही नहीं। चाय का कप वही था बस उसे देने वाले हाथ बदल गए थे। यानि एक बेटे या लड़के के जीवन में शादी होने या टूटने से कोई खास परिवर्तन नहीं आता लेकिन एक बेटी जिंदगी के हर मोड़ पर किरदार बदलती रहती है। वो मायके में बेटा बनती है, ससुराल में बहू स्वरूपी बेटा बनती है, कामकाजी होती है तब भी ससुराल वालों के लिए बहू की शक्ल में कमाऊ बेटा बनती है। कुल मिलाकर उसके हिस्से में शाबाशी भी बेटे की उपमाओं से ही आती है।
फिल्म खत्म होने पर आप सोचते हैं कि ये क्या हुआ। हमें तो लगा था कि अभी फिल्म में कुछ और होना बाकी है लेकिन ये फिल्म गर्म चाय के कप से निकलते धुएं की तरह आपको ख्यालों में उड़ाकर छोड़ देती है। आप सोच में पड़ जाते हैं कि अरे ये तो हर घर की कहानी है।
अमित यदुवंशी, (ये लेखक के अपने विचार हैं।)