Jyon Navak Ke Teer: क्या सोच-विचार, अतीत के अनुभवों एवं ज्ञान के कारण इन्द्रियों की सामान्य गतिविधियां बाधित होती हैं? जब हमे कहीं ठोकर लगती है, तो अक्सर यही होता है कि सोच विचार में डूबे रहने की वजह से हम ठीक सामने पड़ी बाधा को भी नहीं देख पाते। वैसे ही जब हम कुछ सोच रहे हों और सामने वाला कुछ बोलता रहे, तो हम सुन नहीं पाते, क्योंकि मन विचारों में कहीं डूबा होता है।
हम कहते हैं ‘ध्यान’ कहीं और था। ‘ध्यान’ वही था, बस उसपर कोई पुरानी कोई स्मृति या आने वाले कल की कोई फिक्र हावी हो गयी थी, विचारों के रूप में। ऐसा ही नहीं था क्या? रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में सामान्य चीज़ों को देखते-सुनते, महसूसते समय विचार किस तरह बाधा बनता है, इसे एक वस्तुनिष्ठ तथ्य के रूप में देखा और सत्यापित किया जा सकता है।
विचारों को निहारना दिलचस्प है
विचारों की गति को निहारना दिलचस्प है। एक विचार आता है और फिर आगमन होता है एक अंतराल का, जिसमे पहले के विचार की दिशा बदल जाती है और दूसरा विचार शुरू हो जाता है। यदि कोई अंतराल न होता तो फिर सुबह से रात तक एक ही विचार चलता रहता। पर यह सब कुछ इतनी तेजी से होता है कि दिखाई नही पड़ता। जैसे तेजी से चलते हुए पंखे की अलग-अलग पत्तियां कहां दिखाई देती हैं? पर होती तो हैं। ‘ऊहापोह’ शब्द को हमारे सामान्य सोच-विचार का निकटतम पर्याय कहा जा सकता है। एक ही बार में दो विरोधाभासी चीज़ों की इच्छा; एक साथ ही कुछ पाने की भी और न भी पाने की अभिलाषा।
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जो है भीतर बैठा
यह सोच विचार बड़ी उपद्रवी चीज है! हमारे कहने, करने और सोचने के बीच बड़ी-बड़ी खाइयां हैं जो हमारे सोच विचार की बुनियादी रूप से काइयां प्रकृति पर प्रकाश डालती है| ‘किरातार्जुनीयम्’ में महाकवि भारवि ने दुर्योधन से इस बात को बड़े प्रभावी ढंग से कहलवाया है: जानामि धर्मम् न च में प्रविति, जनाम्यधर्मम न च में निवृति; केनापि देवेन ह्रदयस्थितेन, यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि। दुर्योधन कह रहा है कि उसे मालूम तो है कि सही क्या है, पर उसका मन उस ओर जाता नहीं; उसे यह भी मालूम है कि गलत क्या है, पर उसे इससे मुक्ति नहीं। आगे वह कहता है कि कोई है जो मेरे भीतर बैठा है और जैसा वह तय करता है, वैसा-वैसा मैं करता रहता हूँ। यह जो भीतर बैठा है, वही अनियंत्रित, अपरीक्षित विचार है, ऐसा समझ आता है। उसमे बड़ा प्रबल वेग है और वह ऊटपटांग चीज़ें करवाता रहता है हमसे।
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अनवधान ही विचार है
कुछ मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि ज़्यादातर विचार असजग होने पर आते हैं। अनवधान ही विचार है। सजगता की बिल्ली चौकन्नी होकर बैठी रहे तो विचार का चूहा बिल से ही नहीं निकलता। यह प्रयोग करने योग्य है। बेहोशी या सजगता का अभाव अतीत की स्मृति या भविष्य की फिक्र में खो जाने का ही दूसरा नाम है। फिर तो इस बेहोशी के कारक सिर्फ सतही नहीं; चेतना की अवचेतन, अचेतन परतें उपरी परतों से अधिक गहरी और अबूझ हैं। मन की बेहोशी गहरी है और कुछ तो है जो समझ से बाहर है| ग़ालिब नें इसे अपने एक खूबसूरत शेर में इस बेहोशी के बारे में लिखा है: बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।
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कहां से आते हैं विचार?
हम शायद ही कभी सोचते हों कि विचार क्या हैं, कि सोच क्या है? इनकी उत्पत्ति कहां है? स्मृति से? क्या भावनाएं भी सोच ही हैं? यदि सोच स्मृति का प्रयुत्तर है और स्मृति की जड़ें अतीत में ही हैं तो फिर तो नए विचार या नयी सोच जैसा कुछ हो ही नहीं सकता| हम जो कुछ भी सोच रहे हैं वह क्या किसी और ने, किसी और समय में, कहीं नहीं सोचा? फिर नयी, मौलिक और अपनी सोच जैसा क्या है? वर्तमान क्षण अतीत के भविष्य की ओर प्रवाह के लिए बस एक गलियारा भर है। विचार एक पेंडुलम की तरह डोलता रहता है बीते हुए पल और आने वाले पल की बीच| हर विचार के केंद्र में मजबूती और पूरी जिद के साथ बैठा हुआ एक ‘मैं’ है।
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विचारों की मजबूत गिरफ्त
विचारणा मन के सबसे गहरे संस्कारों या आदतों में है। यह मानना बहुत ही मुश्किल है कि उसके बगैर भी जीवन को समझा जा सकता है| इसलिए बौद्धिकता का, विचारों का महिमामंडन एक सामान्य बात है जो बहुत छोटी उम्र से ही दिमाग में ठूंस दी जाती है। आइन्सटाइन ने विचार के इस खेल को समझा था और यह भी कहा था कि विचार से पैदा हुई समस्याओं का समाधान विचार के स्तर पर हो ही नहीं सकता विचार की मदद से समाज ने बहुत प्रगति की, विज्ञान और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में हम बहुत आगे तक गए, पर विचार ने ही दुनिया का सबसे अधिक सर्वनाश भी किया है| वर्चस्व की कामना, शोषण की प्रवित्ति, उपभोग करने और बटोरने की आदत। ये सभी विचार ही हैं जिन्होंने हमारे मन को गिरफ्त में रखा हुआ है।
विचार का अर्थ प्रगतिशील विचार ही नहीं। विचार का विरोध फासीवाद ही नहीं। बहुत ही क्रूर, दकियानूसी और प्रतिक्रियावादी लोग भी विचार के असर में ही सोचते और काम करते हैं। आम भाषा में हम भले ही हम उसे विचारहीन कह लें, पर उनपर भी विचारों की मजबूत गिरफ्त होती है।
विचारों की समझ आध्यात्मिक लोगों का ही काम नहीं
समस्या यह भी है विचारों के अंत करने की संभावना से जुड़ी बातों का इस्तेमाल तथाकथित धार्मिक लोगों ने कर लिया है। वे विचारातीत ध्यान, परम शान्ति, और इस तरह की तमाम बेबुनियाद बातें करके लोगों को रिझाने लगे। इसलिए विचारों की अंदरुनी दुनिया का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन नहीं हो सका। हुआ भी तो रोज़मर्रा की जिंदगी में, प्राथमिक शिक्षा के स्तर से नहीं, बल्कि एक ख़ास किस्म के विज्ञान के रूप में। जबकि विचार और उसकी वैज्ञानिक समझ उतनी की आवश्यक है, हमारे रोज़मर्रा के जीवन के साथ उतनी ही गहराई के साथ जुडी है, जितना कि हमारा आहार, व्यवहार और शारीरिक स्वास्थ्य।
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