आत्म-प्रेम, प्रेम का सबसे प्राचीन रूप
पर एक सवाल उठता है कि क्यों इतने करीब होने के बावजूद हम इस मैं की गति और इसकी संरचना से न ही परिचित होते हैं, और न ही परिचित होना चाहते हैं। इसे समझने के लिए हम इसकी गति में कोई स्वाभविक रूचि नहीं रखते। जब इसपर कोई चर्चा भी होती है तो हम अक्सर मनोवैज्ञानिकों को या तथाकथित आध्यात्मिक पुस्तकों या गुरुओं को उद्धृत करके संतुष्ट हो जाते हैं। इस शब्द को लेकर कई रहस्यवादी धारणाएं हैं और खासकर धार्मिक किताबें इसके बारे में कई ऐसी बातें करती हैं कि एक समझदार, तार्किक व्यक्ति इस विषय को खुद से दूर रखना ही पसंद करता है।
अहंकार छिप जाता है कहीं भी
मैं को अक्सर अहंकार का पर्याय भी माना जाता है। यह चतुर होता है और सूक्ष्म भी। इसकी तुलना अक्सर एक तिलचट्टे के साथ की जाती है जो कहीं भी छिप जाता है, ठन्डे फ्रिज में भी और किसी गर्म, उमस भरे कोने में भी। इसकी तुलना ग्रीस के जल देवता प्रोटिअस के साथ भी की जाती है जो पकडे जाते ही अपना रूप बदल देता है। एक तथाकथित संत जो अपने अहंकारी न होने और मैं से मुक्त होने का दावा करता है उसके भीतर भी अपने संतत्व को लेकर भारी अहंकार हो सकता है। अपने ज्ञान को लेकर भी किसी में बहुत अहंकार हो सकता है।
कोई समाज सेवी खुद को और दूसरों को यह पूरा भरोसा दिला सकता है कि वह सिर्फ परोपकार के लिए काम कर रहा है, पर यह संभव है कि उसे अपने काम से जो शोहरत और प्रसिद्धि मिल रही है वही उसके अहंकार को पोषित कर रही हो। इन सभी बातों का यह अर्थ नहीं कि लोगों को भले काम नहीं करने चाहिए, उन्हें दूसरों की मदद नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसमें भी अहंकार है। इसका अर्थ सिर्फ यही है कि मैं के भाव को, अहंकार की उपस्थिति को पहचानना आवश्यक है। नहीं तो खुद को और दूसरों को भी भ्रम में रखने का खतरा बना रहता है।
उलझनें हैं समझ के अभाव में
गौर से देखा जाए तो जिसे हम मैं कहते हैं वह स्मृतियों, अनुभवों, संस्कारों और संकलित ज्ञान का एक पुलिंदा भर होता है। किसी भी बाहरी और अंदरूनी चुनौती का प्रत्युत्तर इसी पुलिंदे से आता है। इसलिए हमारे प्रत्युत्तर अक्सर यंत्रवत, यांत्रिक होते हैं, उनमे कोई नवीनता नहीं होती। वे हमेशा एक ही गठरी में से निकल कर जो आते हैं। जिसे हम मन या चित्त कहते हैं वह भी मैं का ही एक पर्याय है। मन के हठ, इसकी विचित्रताएं, इसकी पसंद और नापसंदगी—यह सब कुछ उन्ही स्मृतियों से आता है जिन्होंने मैं को निर्मित किया है। और चित्त की रेखाएं आड़ी तिरछी होती हैं और हमारा जीवन उनपर ही चलता है। हमारे विचार और भावनाएं, हमारे क्रिया कलाप सभी इन्ही आड़ी तिरछी रेखाओं से उपजते हैं। हमारी कई उलझनें इस मैं की संरचना को न समझ पाने की वजह से ही हैं।
सजगता से आसान जीवन
थोड़ी सजगता जीवन को आसान बना सकती है। इसे देखा जा सकता है कि एक संसार हमसे बाहर है और ठीक वैसे ही एक और संसार सांस लेता है हमारे भीतर, अपने आप को व्यक्त करता है। इस भीतरी संसार और जो कुछ भी बाहर है, उनके बीच लगातार एक संवाद, एक द्वंद्व चलता रहता है। वाह्य आतंरिक में बदलता है और आतंरिक वाह्य को प्रभावित करता है। दोनों के बीच की यह क्रीडा ही जीवन है, जैसा कि हम इसे समझते हैं। कभी हमारे अपने मूड, भाव और विचार हम पर हावी हो जाते हैं और कभी बाहरी दुनिया हमें इतना प्रभावित कर देती है कि हम अपनी खुद की समझ खो बैठते हैं और इन्ही प्रभावों के साथ प्रवाहित हो जाते हैं।
आतंरिक की समझ पर धर्म और अध्यात्म का इतना प्रभाव है कि वह हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पाया है। प्राथमिक स्तर पर शिक्षक इससे न ही परिचित है और न ही उसे इसमें दिलचस्पी रखने की जरुरत महसूस होती है। इसके बगैर भी जीवन चल जाता है। जीवन मानों कि हमें यह आजादी देता है कि हम चाहें तो बेहोशी में, अज्ञानता में, उसके साथ भी रह सकते हैं जो अनावश्यक होता है, और जो आवश्यक है उसे पूरी तरह अनदेखा कर सकते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है, पर ऐसा है नहीं। संभवतः इसीलिए सुकरात ने करीब 2500 वर्ष पहले कहा कि एक अपरीक्षित जीवन जीने योग्य ही नहीं। यह बात सौ फ़ीसदी सच लगती है, ख़ास कर आज के माहौल में जब समूचा वैश्विक समाज एक तरह के विभ्रम और उलझन में जी रहा हो, जब कौमें, और जाती तौर पर भी इंसान अंधाधुंध हिंसा और इसके स्थूल और सूक्ष्म अभिव्यक्तियों में लिप्त हो गया हो। ऐसे में यह जानना बहुत जरुरी है कि इन सभी चीज़ों की जड़ें हैं कहाँ? भीतर कहीं या सिर्फ बाहर ही और यदि वे सिर्फ भीतर या बाहर ही हों, तो क्या उनके बीच कोई अंतर्संबंध भी है या दोनों अपने आप में स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं?
सूचनाएं ज्ञान नहीं
यह सब कुछ एक गंभीर समझ का विषय है। सूचना के लगातार हो रहे विस्फोटों के बीच हम सूचनाओं को ही ज्ञान समझ बैठे हैं। सोशल मीडिया और इन्टरनेट का हम उपयोग नहीं कर रहे; ये ही हमारा उपयोग कर ले रहे हैं! सूचनाओं को ज्ञान और ज्ञान को प्रज्ञा समझ लेना एक सामान्य भूल है जिसका हम सभी शिकार हो चुके हैं। ऐसे में किसी भी गंभीर विषय की सच्ची पड़ताल नहीं हो पाती। इन्टरनेट और सोशल मीडिया की वजह से सूचनाएं भी सतही होती जा रही हैं।
मनोरंजन उद्योग की गिरफ्त मन पर मजबूत होती जा रही है। एक तरह से हम सामूहिक अगम्भीरता और सतहीपन के शिकार हो चले हैं। वैज्ञानिक शोध, अध्यात्म, आपसी संबंधों, साहित्य और संस्कृति का उथलापन यही संकेत देता है कि हम अब सिवाय भोग, चीज़ें बटोरने और धनलोलुपता के अलावा हर चीज़ को गौण मानने लगे हैं। हमारा समय लगातार हमारे सामने गंभीर सवाल रखता जाता है, पर हम अपने उथलेपन में फंस कर या तो उनका जवाब नहीं दे पाते, या फिर आधे अधूरे जवाबों के साथ संतुष्ट रह जाते हैं।