Jyon Navak Ke Teer : एक्सपर्ट्स संभालते हैं जिंदगी और मौत की टेंशन

Jyon Navak Ke Teer: कुछ वेबसासाइट्स के जरिये आप ‘किराये’ पर किसी दोस्त को बुला सकते हैं। उसके साथ आप किसी रेस्त्रां में या पार्क में समय बिता सकते हैं।

Jyon Navak Ke Teer: ‘हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी, फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी’। पिछले हफ्ते एक खबर सुनी और साथ ही आज के आदमी और उसकी तन्हाई का बयान करती निदा फाजली की गजल कानों में गूंजने लगी। 1990 के दशक तक जब हम यह सुनते थे कि पश्चिम में बेटे और मां-बाप को एक दूसरे से मिलने से पहले अपॉइंटमेंट लेनी पड़ती है, तो आश्चर्य होता था और अजीब भी लगता था। 

अब हमारे देश में भी ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। अकेलेपन का दर्द बड़े-बुजुर्गों को भी है, युवाओं को भी। मिड लाइफ क्राइसिस (अधेड़ उम्र से जुडी भावनात्मक दिक्कतें) तो बड़ी ही सामान्य बात है और मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि यदि सही समय पर व्यक्त न हों तो पैंतालीस-पचास के आस-पास किशोरावस्था की दबी हुई कामनाएं फिर से जागने लगती हैं और अक्सर बढती उम्र में वे बिलकुल ही अलग और विकृत रूप से व्यक्त होने लगती हैं।

संबंधों में आत्मीयता का खत्म होना

पढाई-लिखाई का तनाव, नौकरी की तलाश, साथ ही भावनात्मक क्लेशों का चौतरफा हमला, विवाह या नौकरी के बाद अक्सर परिवार का टूट जाना, नौकरी में आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा और फिर चीज़ें बटोरने की होड़ में शामिल होना—ये सभी मिल कर जीवन को बड़ा तनावपूर्ण बना दे रहे हैं। लगातार बढ़ते तनाव का कारण और परिणाम दोनों ही है आपसी संबंधों में आत्मीयता का ख़त्म होना। सम्बन्ध समय, अवधान और स्नेहपूर्ण ऊर्जा की मांग करते हैं। रिश्ते बनाना और उन्हें कायम रखना ही एक चुनौती बन गया है। सोशल मीडिया पर गुमनाम रहते हुए, अपरिचित लोगों के साथ जिस आभासी आत्मीयता का अनुभव होता है, उसके झूठे स्वाद ने ही वास्तविक, गहरी, गुनगुनी आत्मीयता की जगह ले ली है।

दोनों पक्षों की सहमति पर निर्भर

बड़े शहरों में किसी भी अकेले युवक और युवती, या बुजुर्ग को दिन भर की थकान, चिक चिक के बाद किसी के साथ शाम को बैठ कर काफी पीने और अपने सुख-दुःख शेयर करने का दिल कर सकता है। ऐसे में कुछ वेबसासाइट्स के जरिये आप ‘किराये’ पर किसी दोस्त को बुला सकते हैं। उसके साथ आप किसी रेस्त्रां में या पार्क में समय बिता सकते हैं। यह सम्बन्ध कुछ घंटो के लिए ही होगा, और सिर्फ भावनात्मक शेयरिंग तक ही सीमित रहेगा। यदि यह स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता है, तो यह दोनों पक्षों की सहमति पर निर्भर करेगा।

लेते हैं सदस्यता शुल्क भी

आप साथ बैठ कर सिर्फ चाय-कॉफी पीना चाहते हैं तो आपको इसका करीब पांच से छह सौ रूपये किराया देना होगा और यदि डिनर पर, मां-बाप, घर वालों के साथ जाना हो तो इसकी कीमत 1000 रुपये तक हो सकती है। रेंटअलोकलफ्रेंड.कॉम और फाइंडफ्रेंड्स.कॉम भी ऐसे ही पोर्टल्स बने हुए हैं जो आपको अपने ही शहर या इलाके के दोस्तों से मिलवाने का वादा करते हैं। 

कुछ पोर्टल्स ऐसे भी हैं जो पांच सौ या एक हजार रुपये सदस्यता शुल्क भी लेते हैं। कई लोगों को यह चौंका देने वाला अजीबोगरीब तरीका लग सकता है, पर जरुरी नहीं कि इसमें हमेशा कोई अप्रिय घटना होने की ही सम्भावना हो। कुछ वेबसाइट्स स्पष्ट रूप से यह कहती हैं कि वे सिर्फ और सिर्फ प्लेटोनिक संबंधों को, सिर्फ दोस्ती को बढ़ावा देने के लिए बनायी गयी हैं। फेसबुक पर भी ऐसे कई पेजेस हैं जो इस तरह के दोस्ताना रिश्तों को शुरू करने में मदद करते हैं।

अकेलापन एक मूलभूत भावना

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अकेलापन एक मूलभूत भावना है और जो क्रोध, उदासी, अवसाद, व्यर्थता के भाव, खालीपन और निराशा को जन्म देती है। अकेले लोग अक्सर सोचते हैं कि उन्हें कोई पसंद नहीं करता, वे खुद के बारे में लगातार चिंतित रहते हैं और दूसरों के प्रति उनकी समानुभूति कम होती जाती है। वे परित्यक्त महसूस करते हैं और इसलिए खुद को लोगों से दूर ही रखते हैं। इस तरह की सभी आदतें और आचरण अकेलेपन के लिए और अधिक खाद-पानी का काम करते हैं। जो अकेले होते हैं वे यह भी सोचते हैं कि दुनिया में उनके अलावा और सभी राजी-ख़ुशी हैं।  

यह सब चौंकाता है 

एक और खबर थी जो यहांं की संस्कृति के सन्दर्भ में चौंका देने वाली है। हैदराबाद से आकर कोलकाता में बसी एक युवती ने एक ऐसी एजेंसी बनायी है जो लोगों के अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था करती है। शव की देखभाल, उसे सुरक्षित रखने से लेकर शव वाहक गाडी और पंडित-पुरोहितों का इन्तजाम तक यह एजेंसी करती है। अलग-अलग संप्रदाय के लोगों के लिए तरह तरह के पैकेजेस हैं। ये सेवाएं ऑनलाइन भी बुक करवाई जा सकती हैं। वह श्राद्ध वगैरह का भी प्रबंध कर देती हैं और जरुरत पड़े तो शव को दूसरे देश भी भेजने की व्यवस्था करवा देती हैं।

मानवीय संबंधों की देख रेख का काम

देश से बाहर रहने वाले लोगों के किसी रिश्तेदार की भारत में मौत हो जाए तो ऐसे में यह एजेंसी बहुत मददगार साबित होती है। लम्बे समय तक बाहर रहने वालों का भारत में अपने नाते रिश्तेदारों के साथ संपर्क टूट जाता है और ऐसे में हर छोटी-बड़ी चीज़ों का बंदोबस्त करना उनके वश की बात नहीं रह जाती। भविष्य में कभी ऐसा भी हो सकता है कि किसी रिश्तेदार की मौत पर लोग बाहर से ही फ़ोन कर दें और इस तरह की एजेंसियां देश में ही अंतिम संस्कार से जुड़े सभी कर्मकांड निपटा कर करके उन्हें बस सूचना दे दें।

सामजिक-आर्थिक कारणों से हो रहे बदलाव जल्दी ही कई और लोगों को इस तरह का ‘व्यापार’ शुरू करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। अभी तो हमें इन ख़बरों को पढ़कर थोडा अजीब लग सकता है, पर धीरे धीरे अन्य बातों की साथ इनकी भी आदत पड़ जानी है। हो सकता है मानवीय संबंधों की देख रेख का समूचा काम विशेषज्ञ और पेशेवर एजेंसियां ही संभाल लें। हो सकता है अकेलापन और उससे जुड़ा अवसाद भी साथ ही बढ़ता चला जाए।  

 

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