Jyon Navak Ke Teer : आपके पास जीने के लिए बस चौबीस घण्टे हों, तो आप क्या करेंगे, यह सवाल एक आधुनिक भारतीय दार्शनिक ने अपनी किताबों में, अपनी वार्ताओं में कई बार पूछा है। मृत्यु से दूर भागने वाले इंसान के लिए यह सवाल भयावह है, और इसकी सच्चाई भीतर तक बिंध देती है। मृत्यु को बरसों-कोसों दूर रखना ही एक सामान्य इंसान को सही लगता है।
कोई भला क्यों कर सोचेगा कि उसके पास जीने को बस चौबीस घंटे हैं! आपने जरुर गौर किया होगा कि दर्शन का प्राध्यापक अक्सर अपनी कक्षा में पढाता है: मनुष्य नश्वर है। कबीर मनुष्य था, इसलिए कबीर नश्वर था। वह कभी नहीं कहता कि मैं मनुष्य हूँ, इसलिए मैं भी नश्वर हूँ!
अतीत के प्रति मर जाना
मृत्यु पश्चिमी संस्कृतियों में भी एक टैबू, एक वर्जित विषय है। मृत देह को चुपचाप, किसी बंद गाडी में, ताबूत के अंदर बंद करके रखा जाता है। जैसा यहाँ है, वैसे शोर करते, जोर से रुदन करते हुए शव को ले जाने की तो वे कल्पना ही नहीं कर सकते। मृत्यु भयावह है, और उसे जितना दूर रखा जाए उतना ही बेहतर है, यही आम लोगों की सोच है। पर पूर्व में इस तरह का चिंतन रहा है।
रहस्यवादियों और दार्शनिकों को इस तरह की सोच बड़ी प्रिय है। गोरखनाथ बड़े मगन हो कर कहते हैं: मरो वे जोगी मरो, मरण है मीठा, तिस मरणि मरो, जिस मरणि मरि गोरख दीठा। इसका अर्थ है मरना तो बड़ा ही आनंददायक है, बस इस तरह से मरो जैसे गोरख ने मर कर देखा! पश्चिम में भी ग्रीक दार्शनिक सुकरात का मृत्यु प्रेम गौरतलब है।
भीतर के भय का अहसास
पश्चिम में इसी बारे में सुकरात कहते हैं कि एक दार्शनिक मृत्यु को अपना पेशा बना लेता है। पर यह सवाल कि आपके पास सिर्फ चौबीस घंटे ही हों तो आप क्या करेंगें, यह एकबारगी भीतर भय का अहसास पैदा करता है। जिस दार्शनिक ने यह सवाल पूछा है, वह आगे इसका उत्तर कुछ इस तरह देते हैं: ‘क्या आप अपने सभी काम ख़त्म नहीं कर डालेंगे, क्या आप उन सभी लोगों को माफ़ नहीं कर देंगें जिन्होंने आपको आहत किया है; क्या आप उन सभी से माफी नहीं मांग लेंगें जिनको आपने आहत किया है?
गहरी विरक्ति की बात
स्पष्ट है यहां आत्महत्या की या अवसाद में डूब कर मृत्यु की कामना या प्रतीक्षा करने की बात नहीं की जा रही है। यहां दैहिक मृत्यु की कामना करने की भी बात नहीं की जा रही। किसी और ही तरह की मृत्यु या फिर एक गहरी विरक्ति की बात की जा रही है। क्या यह एक तरह की मनोवैज्ञानिक मृत्यु है जिसका अर्थ है अपने रोज़मर्रा के अनुभवों, दुःख-सुख, स्मृतियों के प्रति विरक्त हो जाना, उनसे दूरी बना लेना। हर दिन।
वर्तमान में जीने की क्षमता
यह क्षण क्षण हो यह भी जरुरी है। लगाव को ही प्रेम और सुख मानने वाला मन क्या इस तरह की मृत्यु के लिए तैयार है? अतीत की स्मृतियांं यदि हमारे मन-मस्तिष्क को अपनी जबरदस्त गिरफ्त में ले लें, भीतर एक ही तरह की घटनाओं, अनुभवों का ग्रामोफ़ोन बार बार बजता रहे तो इसका सीधा अर्थ है कि कहीं न कहीं उसे जरूरत से ज़्यादा महत्व दिया जा रहा है और वर्तमान में जीने की क्षमता मुरझाती जा रही है। ऐसे हालात भी बन सकते हैं कि अतीत में रहना एक ऑब्सेशन, एक हठ बन जाए।
अतीत पांव पसार कर जम न जाए
यह सब कहना तो फिर भी आसान है, बौद्धिक और शाब्दिक रूप से कोई यह समझ भी सकता है, पर इसे जीना बहुत ही बड़ी चुनौती है। इसे चयनरहित सजगता के साथ बस देख ले कोई तो इसकी पकड़ ढीली पड़ती है यह तो तय है, पर बिलकुल ऑब्जेक्टिव होकर खुद को देख पाना क्या एक संस्कारबद्ध मन के लिये सम्भव है? चयनरहित सजगता का अर्थ है न ही अतीत का गौरव गान किया जाये और न ही उसे लेकर किसी ग्लानिबोध के साथ जीते रहा जाए।
वर्तमान में जीने की बात का फैशन
बड़े बड़े आध्यात्मिक वक्ता और गुरु लोगों को वर्तमान में जीने की सलाह देते है ‘द पॉवर ऑफ़ नाउ’ पिछले दशक में लिखी गयी एक मशहूर किताब है जिसका लेखक एकहार्ट टोल लगातार वर्तमान में रहने पर जोर देता है। वर्तमान में रहने का एक अर्थ जो समझ में आता है वह है कि कोई ऐसी मनोदशा में आ जाए जिसमे उसका अतीत उसे परेशान करना बंद कर दे, उसकी स्मृतियां उसे व्यथित न करे। यानी कि अतीत से जुड़ी हुई दुखदायी यादें उसकी चेतना में सिर्फ आयें और जाएं, और उन्हें तटस्थ होकर निहारा जाए; वे घर में जम कर बैठ न जाएं, चाय पानी के लिए। एक ऐसी दशा जिसमे स्मृतियाँ अपने मनोवैज्ञानिक अवयव के बगैर ही आयें।
ईमानदारी से क्षण में रहना
गौरतलब है कि जिस सीमा तक हम अतीत की वजह से व्यथित होना बंद करेंगें, उसी सीमा तक भविष्य की फिक्र भी हमें नहीं सतायेगी। चेतना में वर्त्तमान, अतीत और भविष्य—तीनों एक साथ उपस्थित रहते हैं पर कभी हम भौतिक रूप से वर्तमान में रहते हुए भी अतीत से इतना अधिक प्रभावित होते हैं कि उस वर्तमान क्षण को देखना ही संभव नहीं हो पाता। ऐसे में सिर्फ यह दोहराना कि वर्तमान क्षण में रहना जरुरी है, एक बड़ी सच्चाई को अनदेखा करना है जो हर पल हमारे साथ साथ चलती है।
चेतना, जैसा कि हम इसे जानते-समझते हैं, वर्तमान में रहने को एक बड़ी चुनौती के रूप में देखती है। अतीत के भारी बोझ के बावजूद कोई वर्तमान क्षण में ही ईमानदारी के साथ रह पाए, तो यकीनन यह एक बहुत ही खूबसूरत बात होगी।