Jyon Navak Ke Teer: सोचो कुछ, होता कुछ और ही है!

Jyon Navak Ke Teer: अक्सर घटनाएं किसी के कारण नहीं होतीं। वे बस होती हैं। मन को प्रतिक्रियात्मक बनने से रोकना चाहिए।

Jyon Navak Ke Teer: जीवन सतत भी है और अस्थायी भी। ऐसा ही है यह। यह लगातार बदल रहा होता है; हमारे सामाजिक जीवन से लेकर व्यक्तिगत जीवन में दैनिक अनुभव कभी एक जैसे नहीं होते हैं। एक दिन सुबह काम पर जाते ही यह मालूम पड़ता है कि हमारा पसंदीदा सहकर्मी या बॉस अब कंपनी छोड़ चुका है।

कोई मित्र गंभीर रूप से बीमार पड़ गया है या फिर इस संसार को छोड़ कर ही जा चुका है। हो सकता है कि कभी कोई मामूली पर बहुत परेशान करने वाली घटना ही घट जाए। मसलन, आप काम पर जाने की तैयारी कर रहे हों और आपकी मोटर साइकिल या कार खराब हो जाए। इंटरव्यू हो और घर में बिजली पानी गायब मिले; हम तैयार ही न हो पाएं। देह की हरेक कोशिका, प्रत्येक ऊतक परिवर्तनशील है। त्वचा शरीर का सबसे बड़ा अंग है और सात साल में समूची बदल जाती है| बदलाव अकेली स्थिति है जो चिरस्थायी है।

प्रिय होता है अप्रत्‍याशित सुख

सही है कि हम एक ही नदी में दो बार पैर नहीं भिंगो सकते। कुछ क्षणों बाद भी उस नदी में उतरेंगे, तो वह बदल चुकी होगी। अप्रत्याशित घटनाएं चिंतित तभी करती हैं जब उनके साथ असुविधा, तकलीफ या दुःख का आगमन होता है। अप्रत्याशित सुख कभी कभी ही मिलता है पर वह लगता बहुत प्रिय है। जैसे अचानक बड़ी लाटरी निकल आये, या ऐसी नौकरी मिल जाए जिसकी कोई उम्मीद ही नहीं थी। पिछले हफ्ते अपने एक अस्वस्थ मित्र के घर से लौट रहा था कि अचानक तूफानी हवाएं चलने लगीं।  मित्र गंगा के किनारे बसे एक रिहायशी संस्थान में रहता था। बहुत अधिक और बहुत बूढ़े वृक्ष थे वहां| तूफान में असंख्य पेड़ों के बीच फंस जाएं तो पत्तों, तनों की उपस्थिति हवा के वेग को कई गुना बढ़ा देती है। शहर में मकानों के बीच तूफ़ान की चाल और आवाज अलग होती है।

खुली जगह पर, ढेर सारे वृक्षों के बीच कुछ और। घर पहुंचा तो कार के ठीक पीछे एक बड़े दरख़्त मजबूत डाल गिरी पड़ी थी। कबाड़ बनने से कार बस कुछ फ़ीट से बच गई थी। मित्र के घर से अपने ठिकाने तक पहुंचने के रास्ते में गंगा भी देखी। बहुत साफ और चैन से बहती हुई। गंगा को देख कर लगा, कुदरत के लिए अप्रत्याशित कुछ भी नहीं।

हो जाती हैं दुर्घटनाएं  

कुछ अचानक घट भी जाए तो किसी नदी, जंगल और पर्वत के अंतस में इतना विराट कुछ होता है, जिसमें हर अप्रत्याशित, प्रिय और अप्रिय घटना चुपचाप समा जाती है। हमारे जीवन में पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार, पहले से सोचे गए तरीकों के हिसाब से शायद ही कुछ होता हो। बस ऐसे ही हो जाती हैं दुर्घटनाएं, ऐसे ही फैल जाती हैं बीमारियां, ऐसे ही मित्र बीमार पड़ जाते हैं, बस ऐसे ही पेड़ गिर जाते हैं। ऐसे ही हम बच निकलते हैं। जीवन का दस्तूर ही ऐसा है।

नियंत्रण हमारा किसी पर नहीं

अमेरिकी लेखक पॉल ऑस्टर का कहना है: ‘दुनिया बहुत्त ही अप्रत्याशित है। चीजें अप्रत्याशित रूप से, अचानक घट जाती हैं। हम ऐसा महसूस करना चाहते हैं कि हम अपने अस्तित्व को नियंत्रित कर रहे हैं। कुछ अर्थों में हम इसे नियंत्रित करते भी हैं, और कुछ अर्थों में नहीं भी करते। हम तो संयोग और संभावनाओ द्वारा नियंत्रित होते हैं’। पहले से कुछ तय करना मुश्किल है इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम अपने और अपने साथ रहने वालों का जीवन बीमा न करवाये, अपने स्वास्थ्य का ख्याल ही न रखें और अपने बच्चों के भविष्य के लिये कोई इंतजाम न करें।

पर यह जरुरी है कि एक लकीर खींच दी जाए, उन बातों, जो हमारे वश में हैं, और उनके बीच जिन पर पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं। जीवन में उन कारकों पर नियंत्रण की कोशिश जो कहीं से भी हमारे वश में नहीं, बहुत ज़्यादा आंतरिक कलह और दुख को जन्म देती है। इसे समझ कर, संभल कर सही फैसले करना हमें कई परेशानियों से बचा सकता है।

विरोधाभासी पर सच्‍ची बातें

अक्सर जीवन में एक ही बात सही हो ऐसा नहीं होता। कभी कभी दो बातें एक दूसरे की विरोधाभासी और विपरीत होते हुए भी सच होती हैं। घटनाओं के अप्रत्याशित होने के साथ भी ऐसा ही कुछ है। कभी कभी घटनाऐं अचानक होती प्रतीत होती हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं होता। मृत्यु को ही ले लें। धीरे धीरे भुरभुरी हड्डियों पर पैर रख कर देह की सीढियां चढ़ती है मौत। पूरा समय लेकर सूखती हैं रक्त कणिकाएं। दीमक-समय आराम से कुतर कर खोखला करता है मांस मज्जा को। और फिर भी अक्सर हमें ऐसा ही प्रतीत होता है कि कोई अचानक से चल बसा।

किसी अंतिम घटना तक पहुंचने वाली प्रक्रिया इतनी धीमी और बारीक होती है कि दिखाई नहीं देती। स्थूल दृष्टि इसे पकड़ नहीं पातीं। अप्रत्याशित को लेकर चिंतित और दुखी रहने की यह समस्या कुदरत में बस हमारे साथ ही है।

अलग और अजीब हैं हम

जो जैसा है उसे हम स्वीकार नहीं कर पाते। हम हमेशा घटनाओं, लोगों, वस्तुओं को अपने हिसाब से बदलना चाहते हैं। हमारे दुर्दांत दुःख और हर्ष के बीच का फर्क वास्तव में प्रतिरोध और स्वीकार के बीच का ही फर्क है। प्रतिरोध ही दुःख है। इसलिए समूचे अस्तित्व में सिर्फ हमारे भीतर कलह भी ज्‍यादा है। दर्द उससे मुक्त होने की फिक्र भी। हम अलग भी हैं और अजीब भी। हम ऐसे ही हैं| हम कब तक ऐसे ही रहेंगे, कोई नहीं जानता।

कुछ रास्ते हैं जिन्हें अपना कर आकस्मिक घटनाओं के कारण उपजे दुःख को थोडा कम किया जा सकता है। यह मान लिया जाना चाहिए कि जीवन अप्रत्याशित घटनाओं से भरा हुआ है। इनके लिए मन को तैयार किया जाना चाहिए।

थोड़ा ठहर जाएं

चीज़ें मुकम्मल हो सकती हैं, यह धारणा छोड़ देनी चाहिए। ऐसा कुछ होता ही नहीं जो पूर्ण हो, मुकम्मल हो। जो इस धारणा को पाल लेते उन्हें कुछ भी संतुष्ट नहीं करता। उनका जीवन अप्रत्याशिताताओं से कुछ अधिक ही भरा होता है| हमें दूसरे व्यक्तियों को, परिस्थितियों को और किस्मत को दोष देना भी छोड़ देना चाहिए| जीवन की हर अप्रिय घटना के लिए हम दूसरों को दोष देने की आदत के शिकार होते हैं।

अक्सर घटनाएं किसी के कारण नहीं होतीं। वे बस होती हैं। मन को प्रतिक्रियात्मक बनने से रोकना चाहिए| मन हर बात पर प्रतिक्रिया करता है और किसी न किसी तरह की हरकत उसमें जरूर होती है। सकारात्मक भी और नकारात्मक भी।

बेहतर होगा कि हम तुरंत प्रतिक्रिया न करें। जब भी कुछ देखें, कोई अनुभव करें, तो थोडा ठहर जाएं। इसके बाद ही कुछ कहें या करें। प्रतिक्रिया और प्रत्त्युत्तर में यही फर्क होता है और यह संभवतः जीवन में बड़ा बदलाव ला सकता है। अप्रत्याशित के साथ सलटने में मदद कर सकता है। मन का एक कोना अप्रत्याशित से आशंकित रहता है पर उसे इसकी प्रतीक्षा में भी लगातार लगा रहना चाहिए।

 

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