इंसान की आक्रात्मकता
मशहूर वैज्ञानिक स्टीवन हॉकिंग लगातार धरती के संभावित विनाश को लेकर फिक्रमंद रहे। उनका कहना था कि जिस चीज़ ने धरती को सबसे अधिक चोट पहुंचाई है, वह है इंसान की आक्रात्मकता। इस बारे में उनकी सलाह है कि हमें इस धरती से बाहर, अंतरिक्ष में कोई ठांव ढूंढनी चाहिए क्योंकि यहां तो अब सब कुछ जल रहा है। पता नहीं हॉकिंग यह क्यों नहीं समझ पा रहे कि इसी आक्रात्मकता को लेकर हम चाहे कहीं चले जाएं, वहां भी तो विनाश ही करेंगें!
अब डीएनए का हिस्सा (Jyon Navak Ke Teer)
यहां राजघाट, काशी में चारों ओर न जाने कितने प्राचीन वृक्ष हैं। नीम, पीपल, गूलर, पाकड़, अर्जुन और ऐसे कितने! बस कुछ ही कदम पर बेरुखे मौसम से बेपरवाह गंगा बहे जा रही है। कॉटेज से ठीक बाहर एक मोर हर दिन की तरह टहल रहा है। सजग और शांत, लंबी-सी गर्दन और शानदार पंखों वाला सौन्दर्य का अघोषित सम्राट। हर आहट पर जैसे उसका एक एक रोयां जग जाता है…पीपल की सूखी पत्तियां उसके संकरे मार्ग पर इधर उधर बिखरी हैं। पत्तियों पर मोर के पंजों के निशान हैं।
इंसानों के प्रति इस अद्भुत पक्षी में एक जन्मजात भय उपस्थित है; उसकी हिंसक, भूखी प्रवित्तियों को वह सदियों से देखता आया है उसकी प्रजाति के हर सदस्य ने और आने वाली पीढ़ियों ने भी इंसान नाम के खूंखार जीव से सतर्क रहने का अचेतन निर्णय ले लिया है। यह भय और यह सतर्कता अब उसके डीएनए का हिस्सा है।
सरहदें कृत्रिम और सियासी
हमें बार बार खुद को यही याद दिलाना पड़ता है कि हम कुदरत का हिस्सा हैं। जैसे पीपल, बरगद, पाकड़ और गूलर, वैसे ही हम। जैसे गिलहरी और कठफोड़वा; जैसे बाज और बत्तख, वैसे ही हम। हमारी त्वचा की बाहरी सतह ने हमारी एक झूठी सीमा परिभाषित कर दी है, और हम समझने लगे हैं कि हम अलग हैं। इंसान की बनायी सरहदें कृत्रिम और सियासी हैं। कुदरत उनका सम्मान नहीं करती।
थोडा ठहर जाएं प्रकृति के साथ
कुदरत के साथ हमें अपने खोये हुए रिश्तों को फिर से जगाना होगा। उसे अपने भोग और मनोरंजन की चीज़ न समझ कर उसके साथ स्नेह का सम्बन्ध बनाना होगा। उस संवाद को फिर से शुरू करना होगा जो हमारी तथाकथित सभ्यता की यात्रा के दौरान कहीं टूट गया है। धरती कहीं नहीं जा रही, हम ही खो गए हैं। हो सके तो हम नंगे पाँव थोड़ी देर धरती पर चलें, कभी दरख्तों की खुरदुरी छाल का स्पर्श करके देखें, कभी अपने बोझिल सर उठाकर रात के आसमान को देखें, कभी नदी में पाँव डुबो कर कुछ देर बैठें… बस थोडा ठहर जाएं प्रकृति के साथ। हमारी हर सांस के साथ पूरी कायनात भीतर समाती चली जायेगी। बस अपनी उपस्थिति से प्रकृति का सौन्दर्य ‘निखार’ कर सेल्फी न लेने लगें। उसका उपयोग आत्मश्लाघा और आत्मविस्तार में न करें।
धरती का एक विशाल मंडी में बदलना (Jyon Navak Ke Teer)
हमने पर्वतों का अंधाधुंध शोषण भी देखा होगा। विस्फोटकों से उनका उड़ाया जाना भी देखा होगा। विकास और पर्यटन के नाम पर पहाड़ों को निचोड़ लिया जा रहा है। हमारा वश चले तो निगल ही जाएं उन्हें समूचा. भूस्खलन, भूकंप और बाढ़ में हमारा योगदान कितना है, उसका आकलन कभी किया हमने? सरकारी आंकड़ों के हिसाब से नहीं, बल्कि खुद के अवलोकन से। कुदरत ने हर वस्तु हमे मुफ्त दी है, और वह भी ऐसी वस्तुएं जिनके बगैर हम जी ही नहीं सकते: हवा, पानी, अन्न…और हमने हर चीज़ को खरीदने और बेचने वाले ‘माल’ में तब्दील कर दिया है।
पेड़ पौधों, खूबसूरत पशु पक्षियों और फल फूलों से बिछी इस धरती को हमने एक विशाल मंडी में बदल दिया और इसका परिणाम हम भुगत रहे हैंं, जितना नाश हमने धरती का खुद किया है, उतना प्रकृति के प्रकोप से नहीं हुआ। हो भी नहीं सकता।
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साथ साथ शांति के साथ चलें
समूची मानवता की कल्पना एक विराट भूखे दैत्याकार मानव के रूप में करें, और उस दैत्य के रोज़ के मेन्यू को देखें। उसके ब्रेकफस्ट में जंगल, लंच में पर्वत और डिनर में समुद्र होता है। बीच-बीच में स्नैक्स के नाम पर पशु पक्षियों की अगिनत प्रजातियाँ उसके उदर में समाती जा रही हैं। जब हम खुद की बनायी हुई कुल्हाड़ी पर खुद के पैर लगातार पटक रहे हों, तो कौन सा वैद्य करेगा हमारा इलाज! जानते हैं?
एक दुष्चक्र है: कुदरत से प्रेम कम होगा तो हम क्रूर बनेंगें और क्रूर बनेंगे तो कुदरत का और अधिक शोषण करेंगे। इस खोये प्रेम को ढूंढना और उसे जी लेना इस सदी का सबसे बड़ा सवाल है, हो सकता है यही सदी हमारी आखिरी सदी हो।थिच नाह्त हान्ह का एक कीमती वाक्य याद आ रहा है:“असली चमत्कार इस बात में नहीं कि आप नंगे पांव पानी पर चल पा रहे हैं; वास्तविक चमत्कार तो इसमें है कि इस धरती पर हम साथ साथ शांति के साथ चलें।”
पीछे कोई अमिट निशान न छूट जाएं
क्या हम खुद को और अपने बच्चों को, अपने साथी संगियों को इस अंतर्संबंध के बारे में सिखा सकते हैं, समय रहते, कि इस धरती पर होना एक वरदान भी बन सकता है। वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों से ज्यादा हमें अपने भीतर के प्रेमी और कवि को जगाने की जरुरत है। धरती ज्ञान और तकनीक नहीं, प्रेम की प्यासी है।
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बस एक बार हम इसे कृतज्ञता के साथ स्वीकार कर लें, इसका अनावश्यक उपयोग न करें, और अपने ह्रदय से, सिर्फ कुटिल मस्तिष्क और शब्दों से नहीं, इससे क्षमा मांग लें। एक बार पूरी ईमानदारी के साथ खुद से पूछ लें कि कैसे चलें इस ज़ख़्मी धरती पर कि कार्बन में सने हमारे स्वार्थी पदचिन्ह इसे मैला न करें, और पीछे कोई अमिट निशान न छूट जाएं; कैसे चलें कि हमारे बच्चों और उनके बच्चों के रास्ते साफ़ सुथरे बने रहें।